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________________ यह ठीक है कि श्रागरा-जयपुर के विद्वानों द्वारा ज्ञान के सतत प्रसार से उत्तर भारत में इन भट्टारकों का अस्तित्व समाप्तप्रायः हो गया है | फिर भी कुछ भाई, जिनमें विद्वान् एवं त्यागी भी हैं, फिर भट्टारक परंपरा को प्रोत्साहन देना चाहते हैं श्रीर उन भट्टारकों द्वारा रचित ग्रन्थों का प्रचार करते हैं । ऐसे ग्रन्थों में 'रयणसार' भी एक है यद्यपि इसे प्राचार्य कुन्दकुन्द द्वारा विरचित बताया जाता है किन्तु इस ग्रन्थ की परीक्षा करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह ग्रन्थ अपने वर्तमान रूप में कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा रचित नहीं हो सकता । अपने विचार प्रस्तुत करने से पूर्व मैं कतिपय साहित्य मर्मज्ञ विद्वानों के मत उद्धृत करना आवश्यक समझता हूँ - स्व० डा० ए० एन० उपाध्याय ने प्रवचनसार की भूमिका में इस प्रकार लिखा है रयणसार ग्रन्थ गाथा विभेद, विचार पुनरावृत्ति अपभ्रंश पद्यों की उपलब्धि, गण गच्छादि का उल्लेख और बेतरतीबी श्रादि को लिए हुए जिस स्थिति में उपलब्ध है उस पर से वह पूरा ग्रन्थ कुन्दकुन्द का नहीं कहा जा सकता। कुछ अतिरिक्त गाथाओं की मिलावट ने उसके में गड़बड़ मूल उपस्थित कर दी है और इसलिए जब तक कुछ दूसरे प्रमाण उपलब्ध न हो जाय तब तक यह विचाराधीन ही रहेगा कि कुन्दकुन्द इस रयणसार के कर्त्ता हैं । पुरातन ग्रंथों के पारखी स्व० पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार का रयणसार के संबंध में निम्न मत है-: - 2-18 उनके क्रम का बहुत बड़ा भेद पाया जाता है । कुछ अपभ्रंश भाषा के पद्य भी इन प्रतियों में उपलब्ध हैं। एक दोहा भी गाथाओं के मध्य में आ घुसा है । विचारों की पुनरावृति के साथ कुछ बेतरतीबी भी देखी जाती है, *गण गच्छादि के उल्लेख भी मिलते हैं, ये सब बातें कुन्दकुन्द के ग्रंथों की प्रवृति के साथ संगत मालूम नहीं होती, मेल नहीं खातीं । ( पुरातन जैन वाक्य सूची प्रस्तावना) Jain Education International स्व० डॉ० हीरालालजी जैन ने अपने 'भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान' शीर्षक ग्रन्थ में रयणसार के सम्बन्ध में इस प्रकार लिखा है : इसमें एक दोहा व छः पद अपभ्रंश भाषा में पाये जाते हैं या तो ये प्रक्षिप्त हैं या फिर यह रचना कुन्दकुन्द कृत न होकर उत्तरकालीन लेखक की कृति है, गण गच्छ प्रादि के उल्लेख भी उसको अपेक्षा कृत पीछे की रचना सिद्ध करते हैं । पृ० 105 श्री गोपालदास जीवाभाई पटेल ने 'कुन्दकुन्दाचार्य के तीन रत्न' शीर्षक पुस्तक में रयणसार के सम्बन्ध में निम्न मत प्रस्तुत किया है : यह ग्रन्थ कुन्दकुन्दाचार्य रचित होने की बहुत कम सम्भावना है अथवा इतना तो कहना ही चाहिए कि उसका विद्यमान रूप ऐसा है जो हमें संदेह में डालता है । इसमें अपभ्रंशके कुछ श्लोक हैं और ग़रण गच्छ और संघ के विषय में जिस प्रकार का विवरण है वह सब उनके अन्य ग्रन्थों में नहीं मिलता । (प्र० 20 ) यह ग्रंथ भी बहुत कुछ संदिग्ध स्थिति में स्थित है । जिस रूप में अपने को प्राप्त हुआ है उस पर से न तो इसकी ठीक पद्य संख्या ही निर्धारित की जा सकती है और न इसके पूर्णतः मूल रूप का ही पता चलता है | ग्रंथ प्रतियों में पद्य संख्या और तीर्थंकर महावीर और उनकी श्राचार्य परम्परा के स्व० डॉ० नेमीचन्दजी ज्योतिषाचार्य ने महावीर जयन्ती स्मारिका 77 पं० पन्नालालजी साहित्याचार्य ने रयरणसार को 'कुन्दकुन्द भारती, नामक कुन्दकुन्द के समग्र साहित्य में इसलिए सम्मलित नहीं किया कि इसमें गाथा संख्या विभिन्न प्रतियों में एक रूप नहीं है। कई प्राचीन प्रतियों में कुन्दकुन्द का रचनाकार के रूप में नाम नहीं है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014023
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1977
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1977
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size25 MB
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