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________________ अनुमति मिल सकी जितना बड़ा क्षोभ रहा और है। उस शिल्पी ने अपनी सम्पूर्ण कला प्रतिभा कला के ऐसे महत्वपूर्ण खजाने से हम खाली हाथ द्वारा केवल ये दो प्रतिभाए ही घढी थी। इस ही लौटे। यहीं एक मन्दिर में कुछ प्राचीन वत्र मन्दिर में जो शिलालेख है वह निम्न प्रकार है-- रखे हैं जिसके विषय में किंवदन्ती है कि ये वस्त्र श्रीसाहिण योगतो युगबरे त्यच्छं पदं जिनचंद सूरीजी महाराज के हैं जो उनके दाह के दत्तवान् । समय भी नहीं जले थे । यही उनका समाधिस्थल येभ्यः श्रीजिनचन्द्रसूर पट्ट विख्यात सत्कीर्तयः। तत्प? मित तेजसो युगवरा: श्रीजैन सिंहाभिधा लौद्रवनगर-जैसलमेर से लगभग 20 कि.मी. तत्पट्टांबुजभास्कराः गणधराः श्रीजैनराजाः दूर लौद्रवनगर है जिसे लौद्रवा भी कहते हैं यह श्रुताः ।।।:: लौड (लौद्र) राजपूतों की राजधानी थी। सं० तैभाग्योदय सुदर : रिपुसरस्वत्षोडशाब्दे । 900 में भाटी देवराज ने इसे राजपूतों से छीनकर (1675) सितद्वादश्यां । प्रथम रावल की उपाधि धारण की थी। चूंकि सहसा प्रतिष्ठित मिदं चैत्य स्वहस्तश्रिया । लौद्रवा सुरक्षा की दृष्टि से बडा कमजोर था यस्य प्रौढतर प्रताप तरणे श्रीपानाथेशितु । अतः सं0 1212 में इस राज्य की राजधानी यहां सोऽयं पुण्यभरां तनोतु विपुलां लक्ष्मी जिनः से उठाकर जैसलमेर में स्थापित की गई थी। - सर्वदा ।।2।। फिर भी कला पौर संस्कृति का विकास यहां बरा. पूर्व श्रीसगरो नपोऽभवदलकारोन्वये यादवे । बर चालू रहा। आज भी यहां उच्चकोटि के तक्षक पुत्री श्रीधरराजपूर्णकधरौ तस्याथताभ्यांक्षितौ । विद्यमान है जो प्राचीन कलाकृतियों की प्रनुकृतियां श्रीमल्लौद्रपुरे जिनेशभवने सत्कारितं खीमसी। तैयार कर प्राचीन वैभव को नवीनता प्रदान कर तत्पुत्रस्तदनुक्रमेण सुकृतीजातः सुतः पूनसी ।। तत्पुत्रोवरधर्म सद्गुण श्रीमल्लस्तनयोथ तस्य सत्रहवीं सदी में यहां थाहरूसाह भणशाली कर्मणिरतः ख्यातोऽखिलं सुकृती श्री थाहरू नामकः । बड़ा ही प्रभावशाली प्रतिष्ठित धार्मिक श्रेष्ठी हुमा था जिसने पंचमेरू की भांति पांच मदिरों की श्रीशत्रुजयतीर्थ संघ रचना दी न्युत्तमानिध्रुवं । स्थापना सं. 1675 में कराई थी इनमें से दो य. कार्याण्यकरोत्तथा त्वसरफी पूर्णा प्रतिष्ठा मंदिरों में सहस्रफणी पार्श्वनाथ की दो प्रतिमाए क्षणे 144 बडी ही महत्वपूर्ण एवं कला संयुक्त है । प्रत्येक प्रादात्सर्वजनय जैन ममयं चालेखयत पुस्तकं । फणावली में हजार हजार सर्पफरण बने हुए हैं जो सर्गः पुण्यभरेण पावनमलं जन्म स्वकीय सचमुच ही कलाकार की उत्कृष्ट प्रतिभा के नमूने . मुभयतस्य । हैं । कहते हैं जिस शिल्पी ने ये श्याम वर्ण पार्श- . यस्य जिनपल्योद्धारक व्यधात तेत्र कारितः । नाथ की अनुपम प्रतिमाएं घढ़ी थी उससे थाहरू सार्द्ध सद्धरराज मेघतनयाभ्यां पार्श्वनाथो साह बडा प्रभावित हुप्रा था प्रत: पुरस्कारस्वरूप मुदे ।।5।। थाहरूसाह उस शिल्पी को अपने साथ शिखरजी, शतदल कमल यंत्र शत्रुजय प्रादि की यात्रा के लिए ले गए थे और इसी मदिर में शिल्पकला मर्मज्ञ धर्मपरायण जिस रथ से इन दोनों ने यात्रा की थी वह रथ धनाढ्य लोगों के शिल्प प्रेम का एक सुन्दर नमूना प्राज भी लौद्रवनगर के मन्दिर में सुरक्षित रखा शत दल पद्मयंत्र है जो एक विशाल प्रस्तर खंड पर महावीर जयन्ती स्मारिका 71 -2-5 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014023
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1977
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1977
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size25 MB
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