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________________ प्रसारता के बारे में समझाया, तब माता ने उन्हें प्रकम्पन, अन्धेबल और प्रभास इस प्रकार दस खुशी से दीक्षा लेने की प्राज्ञा दे दी। गणधर पोर बने । भगवान् को दिव्यध्वनि ___भगवान् महावीर के दीक्षा ग्रहण के समय खिरी। देवगण जय-जयकार करते हुए प्राकाश मार्ग से इनके समवशरण में तीन सौ ग्यारह द्वादशांग कुण्डलपुर पाये। वहां उन्होंने भगवान् का दीक्षा के वेत्ता, 9 हजार 9 सौ शिक्षक थे,तेरह सो अवधि भिषेक किया। वे सुन्दर प्राभूषण धारण करने ज्ञानी थे, सात सौ केवल ज्ञानी, ५०० मनः पर्यय के पश्चात् देव निर्मित चन्द्रप्रभा पालकी पर सवार ज्ञानी, नौ सौ विक्रियावृद्धि धारक, चार सो अनु. होकर वन में पाये और वहां प्रगहन बुदो दशमी त्तरवादी, 36000 साध्वियां थीं, एक लाख श्रावक के दिन 'ॐ' नम: सिद्ध भ्यः' कह कर बस्त्रादि और तीन लाख श्राधिकाएं थीं, प्रसंख्यात देवत्याग कर प्रात्म ध्यान में लीन हो गये। देवियां और संख्यात तिर्यच थे। इन सबको तत्पश्चात् एक दिन भगवान महावीर उज्ज- उन्होंने नय प्रमाण और निक्षेपों से वस्तु का यिनि के प्रतिमुक्तक नामक श्मशान में मये और स्वरूप बतलाया। प्रतिमा योग धारण कर वहीं विराजमान हो गये। इसके पश्चात् उन्होंने सम्पूर्ण भारत में घूमउन्हें वहां देखकर महादेव रुद्र ने उनके धैर्य की कर धर्म प्रचार किया । भगवान महावीर ने परीक्षा चाही। उसने बेताल विद्या के प्रभाव से सर्वप्रथम धार्मिक जड़ता और आर्थिक अपव्यय को रात्रि के अन्धकार को प्रत्यधिक सघन बना दिया। रोकने के लिए यज्ञों का विरोध किया. जिसमें तदनन्तर मायामयी सर्प, सिंह, हाथी और अग्नि प्रत्येक मानव के दिल में यज्ञ विरोध इतना विकप्रादि के साथ लम्बी सेना बनाकर पाया और सित हो गया कि पशु यज्ञों का सिर्फ नाम ही शेष कठोर उपसर्ग किये । किन्तु भगवान महावीर रह गये । प्रात्मध्यान से तनिक भी विचलित नहीं हुए। __ भगवान महावीर ने विचारों में अनेकान्त, महावीर के इस अनुपम धैर्य को देखकर महादेव जीवन में अहिंसा, वाणी में स्याद्वाद व समाज में रुद्र अपने असली रूप में आये और भगवान् से अपरिग्रह व पांच अणुव्रतों जैसे अनुपम सिद्धान्तों क्षमा याचन के द्वारा प्रज्ञानी प्राणियों का दिशा बोध किया, जृम्भिका गांव के समीप ऋजुकूला नदी पर, जो आज भी आकाश दीप की भांति मानव का मनोहर नाम के वन में सागोन वृक्ष के नीचे भग- पथ प्रदर्शन कर रहे हैं। वान् महावीर ध्यानस्थ थे। वहीं पर उन्हें केवल- जीवन के अन्तिम वर्षों में भगवान महावीर ज्ञान की प्राप्ति हुई। देवों ने पाकर ज्ञान कल्या पावापुरी पाये और वहां ध्यान में लीन हो गये । एक का उत्सव मनाया और समवशरण की और अपने ध्यान की तल्लीनता के कारण, रचना को। प्रघातिया कर्मों का नाश कर, कार्तिक वदी इन्द्रभूति जिसका अमर नाम गौतम था, अमावस्या के दिन प्रात.काल 70 वर्ष की अवस्था उनका पहला गणधर बना। इसके पश्चात् इनके में मोक्ष की प्राप्ति हुई। देवों ने पाकर निर्वाण वायुभूति, अग्नि, सुधर्म, मौर्य, मौन्द्रय, पुत्र, मैत्रेय, की पूजा की और उनके गुणों की स्तुति की। महावीर जयन्ती स्मारिका 11 1-115 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014023
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1977
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1977
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size25 MB
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