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________________ भगवान् महावीर का जीवन ___ * सुश्री कनकलता बैद, धर्मालंकार ईसा से लगभग 600 वर्ष पूर्व चैत्र शुक्ला देव भयंकर सर्प का रूप धारण कर फुकार करता त्रयोदशी के दिन माता त्रिशला के गर्भ से कुण्डल- हुमा वृक्ष के चारों ओर लिपट गया। सर्प की पुर नामक ग्राम में भगवान् महावीर का जन्म भयंकरता देखकर कुमार के सब मित्र वृक्ष से कूद हा । जिस समय भगवान् महावीर ने जन्म लिया, कर घर भाग गये। पर कुमार ने अपना वैयं नहीं समाज में हिंसा का बोलबाला था। प्रज्ञान रूपी छोड़ा। वे उसके विशाल फरण पर पांव देकर खड़े ज के चारों ओर मंडरा रहे थे, शासकों हो गये और प्रानन्द से उछलने लगे। उनके साहस का अगर कोई सिद्धान्त शेष था तो वह था, से प्रसन्न होकर देव, सर्प का रूप छोड़ अपने 'जीवो जीवस्य भोजनम्' अर्थात् एक जीव ही दूसरे असली रूप में प्रकट हुआ और महावीर की स्तुति जीव का भोजन है। इस प्रकार जो धर्म प्राणी- करने लगा। तभी से प्रापको महावीर नाम से मात्र के सुख, शांति तथा कल्याण के लिए था वही जाना जाता है। हिंसा, विषमता और प्रताड़न का अस्त्र बना धीरे-धीरे भगवान् जवान हो गये। एकदिन हुना था। सिद्धार्थ ने महावीर से कहा. पुत्र ! अब तुम पूर्ण युवा हो गये हो, मैं तुम्हारा विवाह कर तुम्हें जन्म से ही भगवान् महावीर का हृदय दीन राज्य भार सौंप कर दीक्षा ग्रहण करना चाहता दुखियों को देखकर व्याकुल हो जाता था। जब हूं। पिता के ये वचन सुनकर महावीर ने कहा-- सक वे उन दुखियों के दुखों को दूर नहीं कर देते उन्हें शांति नहीं मिलती थी। वे समदर्शी थे। इस पिताजी, जिस संसार से माप बचना चाहते हैं, उसमें मुझे क्यों फंसाना चाहते हैं। आप मुझे कारण भगवान महावीर की कीर्तिगाथा पवन की आज्ञा दीजिये जिससे मैं जंगल में जाकर, वहां के भांति सम्पूर्ण भारत में फैल गयी। वे दूज के शांत वातावरण में रहकर प्रात्म ज्योति को प्राप्त चन्द्रमा के समान दिन प्रति बढ़कर कुमार अवस्था में प्रविष्ट हुये। कर, जगत् का कल्याण करू । पिता और पुत्र का यह संवाद सुन माता एक समय की घटना भगवान् महावीर अपने त्रिशला व्याकुल हो उठी। उसकी प्रांखों के सामने मित्रों के साथ एक वृक्ष पर चढ़ने उतरने का अंधेरा छा गया और वह बेहोश हो गई। जब वह खेल खेल रहे थे। उसी समय संगम नामक एक होश में आई तो महावीर ने उन्हें संसार की 1-114 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014023
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1977
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1977
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size25 MB
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