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________________ प्रजातन्त्र में सामाजिक ऐक्य को प्राथमिकता जितना महत्व देते हैं उतना ही दूसरों के मत व दी जाती है, मानव जाति में ऐक्य की प्रतिष्ठापना मान्यता को महत्व देने का वैचारिक प्रौदार्य प्रकट प्रजातन्त्र है। यहां स्वामी सेवक, स्त्री-पुरुष को करते हैं । यदि इसके विपरीत करेगे तो प्रजातन्त्र पृथक्-पृथक् कर्तव्य या अधिकार नहीं दिये जाते । का गला घुट जायगा,उसकी हत्या हो जायेगी । यहां भेददृष्टि का निराकरण प्रजातन्त्र का मूल है, इसी तो सभी को अपने विचार प्रस्तुत करने का समान भेददृष्टि का निराकरण महावीर के उपदेशों का प्रधिकार है, सभी को अपनी निष्ठानुसार मेरुदण्ड है जिसके लिये उमास्वामी ने अपने धर्माचरण करने की स्वतन्त्रता है। इसी को 'तत्वार्थसूत्र' में सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और हम महावीर के अनेकान्तवाद के परिप्रेक्ष्य में देख सम्यक् चरित्र के समन्वय पर विशेष बल दिया है। सकते हैं। सत्य किसी एक व्यक्ति या सम्प्रदाय की महावीर ने जब यह फरमाया-"जिसे तू मारना बपौती नहीं, वह तो सबका है और सभी के पास चाहता है वह तू ही है" (प्राचारांग 1, 5, 5), तो सत्यांश हो सकता है। हमें दुराग्रह का त्याग कर यहां समत्व का ही उच्च दृष्टान्त प्रस्तुत किया सम्यक् दृष्टि अपनाकर सत्य का रूप जहां भी प्राप्य गया है-प्रात्मा के एकत्व पर ही बल दिया गया है। हो अगीकृत करना चाहिए । मताग्रही सत्य के प्रजातन्त्र में जातीय भेद या वर्ण भेद के लिए कोई द्वार तक नहीं पहुंच सकता, सत्य का मार्ग प्रशस्त स्थान नहीं. रंग व नस्ल की वरिष्ठता के लिए कोई है लस में संकीर्णता नहीं. विस्तार और व्यापकत्व अवकाश नहीं । रंग व नस्ल की निरर्थक वरिष्ठता है। हमें जितना अपना मत प्रिय है दूसरे को भी ने जिस समाज या देश में अपना विष बीज बोया वह उतना ही अपना मत प्रिय है। हमें क्या अधिकार कभी नहीं उबरा सांप्रदायिकता की प्राकाश बेल जिस है कि दूसरे के मत का खण्डन कर उस पर अपने देशजाति के विटप पर फैलने लगती है उसकी प्रगति मत का प्रतिपादन करने का अनैतिक आचरण अवरुद्ध हो जाती है वह दूसरों की दृष्टि में हीन- करें। महावीर ने अनेकान्त के द्वारा एक वैचारिक अनाहत और सावद्य समझी जाती है। महावीर ने क्रान्ति उत्पन्न की। उन्होंने वैचारिक सहिष्णुता अपने समवसरण में किसी जाति, समाज, या धर्मा- का परचम बुलन्द करके सभी को उसके नीचे खड़े वलम्बी पर कभी पाबन्दी नहीं लगाई। उनका धर्म होने अपना अभिमत व्यक्त करने की पूर्ण स्वतंत्रता मानवजाति का धर्म है, किसी सम्प्रदाय या जाति प्रदान की। उन्होंने बतलाया वस्तु या पदार्थ अनेक विशेष का धर्म नहीं । वह आत्मा की पवित्र गंगा धर्म अथवा गुण विशेषता सम्पन्न होता है उसमें है जिसमें सब साथ मिलकर निमज्जन कर सकते एक ही गुण या विशेषता का प्राधान्य नहीं रहता। हैं-वह सभी के पारों कलुषों का शमन करने पनी केवल पत्नी नहीं होती, वह पत्नी के साथ वाला धर्म है। महावीर सम्प्रदायातीत हैं, प्रजातन्त्र एक ममतामयी मां, प्यारी सखी, विश्वसनीय मित्र, भी सम्प्रदायातीत होता है, यहां सभी को अपने मतों लाडली बेटी, प्रिय भाभी प्रादि भी होती है अर्थात् को, विचारों को प्रकट करने की स्वतन्त्रता रहती वह विविधरूपा होती हैं। इसी प्रकार अनेक धर्मों है, सभी को अपनी योग्यतानुसार प्रगति करने की के कारण प्रत्येक वस्तु अनेकान्त रूप में विद्यमान सविधाएं प्राप्त करने के समान अवसर तथा अधि. के रूप नानाविध होते हैं - "प्रने के अन्ताः कार प्रदान किये जाते हैं । व्यक्ति में इस प्रकार की धर्माः यस्मिन् स अनेकान्तः ।" उपाध्याय यशो. प्रात्मस्वातन्त्र्य को भावना महावीर ने हजारों वर्ष । विजय ने कहा है- 'सच्चा अनेकान्तवादी किसी पूर्व जागृत की थी। दर्शन से नहीं करता। वह सम्पूर्ण दृष्टिकोण प्रजातन्त्र में हम अपने मत को, मान्यता को को इसी प्रकार वात्सल्य दृष्टि से देखता है जैसे महावीर जयन्ती स्मारिका 77 1-85 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014023
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1977
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1977
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size25 MB
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