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________________ व्यवहार का अर्थ - जाता है व्यवहार ही ज्ञान करने और प्राचरण प्रागम में भेद को व्यवहार कहा है और दूसरी करने के लिए शेष रहता है। जब यह जीव बंध भाषा में कारण में कार्य के उपचार को भी व्यवहार और बन्ध के कारणों को मानेगा तब उनसे छूटने कहा है। जहां वस्तु को यथार्थ रूप से समझना हो का उपाय करेगा । जैनागम में सौपाय मुक्ति को ही वहां निश्चय का सहारा लेना होगा किन्तु उसको माना है निरुपाय को नहीं और यह सब व्यवहार समझ कर जीवन में उतारना होगा वहां व्यवहार पवार मार्ग का अनुसरण करने पर ही संभव है । तत्त्व का सहारा काम प्रायेगा। जैसे प्रात्मतत्व की श्रद्धा अथवा भेद विज्ञान के बिना तो जैन दर्शन में प्राप्ति हेतु बन्धन मुक्ति निश्चय से श्रद्धान का स्थान ही नहीं दिया जाता उसके होने के पश्चात् विषय है किन्तु वह कैसे प्राप्त हो इसके लिये आचरण करना, हिंसादि पापों से दूर रहना,क्रोधादि उपाय आवश्यक है। समयसार के मोक्ष द्वार में कषाय से छूटना, संयम धारण करना, इन्द्रियों पर कहा है-कि जैसे बंधनों से बंधा हा पुरुष बंधों विजय पाना, सत्कार्य करना, अपने पाप को पाने के का विचार करने से मुक्ति को प्राप्त नहीं उपाय रूप ध्यानाध्ययन करना अणुव्रत महाव्रत करता इसी प्रकार जीव भी बन्धों का विचार अगाकार करना ये सब व्यवहार माक्ष माग है। करने से मोक्ष को प्राप्त नहीं होता इसी के सहारे हम जीवन यापन करते हुए अपने (गाथा 292) । यदि विचार किया जाय तो आप को तथा अन्य को लाभान्वित कर सकते हैं निश्चय से प्रात्मा निबंध है व्यवहार से ही बंधा हमें इस मार्ग को नहीं छोड़ना चाहिए । व्यवहार है और उपाय करने से ही मुक्त होगा यह बंध और ही जीवन की सफलता की अद्भुत कुजी है । हमारे उससे छूटने के सारे उपक्रम व्यवहार गभित हैं प्रतः लिये निश्चय मात्र श्रद्धान का विषय है । हो सकता इसको नकारा नहीं जा सकता। है वह हमारी भूमिका से ऊपर की भूमिका के लिए परमपयोगी हो किन्तु हम जैसे गृहस्थों के लिए वस्तु प्ररूपणा व्यवहार के माध्यम से होती है तो व्यवहार ही उपादेय है । उसके सहारे के बिना हो ही नहीं सकती। इस . प्ररूपए के कारण ही द्रव्यलिंग और भावलिंग की पं० बनारसीदास ने कहा हैचर्चा की जाती है । द्रव्यलिंग में मुनिलिंग और वस्तु स्वरूप विचारतें शरण प्रापको उसका उपासक गृहीलिंग मोक्षमार्ग कहा गया है प्राप। किन्तु निश्चय से दोनों लिंग ही मोक्षमार्ग में नहीं व्यवहारेपन परम गुरू प्रवर सकल बतलाये । निश्चय तो मात्र श्रद्धा का विषय रह संताप ॥ * * महावीर जयन्ती स्मारिका 71 1-69 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014023
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1977
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1977
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size25 MB
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