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________________ ऐसा कहने के बावजूद भी प्राचार्य कुदकुद गाणं प्रप्पा सव्वं जम्हा सुयकेवली तम्हा ।। व्यवहार नय के कायल होकर लिखते हैं समयसार 9, 10 जह णवि सक्क मरणज्जो अणज्जभास विणा उ जो विषय ऋषीश्वरों के विचारने का है वह गाहेउँ। प्राज साधारण अज्ञानी जन के विचारने का विषय तह ववहारेण विणा परमत्थुवएसरण मसक्क॥ हो गया। ऋषीश्वर संसार से ऊपर उठे हुए हैं दृढ (समयसार 8) (जैसे अनार्य भाषा के बिना किसी भी वस्तु श्रद्धान ज्ञान और प्राचारण में रंगे पगे हैं नीची अवस्था छोड़ कर ऊची अवस्था में विचरने वाले का स्वरूप ग्रहण करने के लिये कोई समर्थ नहीं है उसी प्रकार व्यवहार के बिना परमार्थ का हैं - अशुभ को तो सर्वथा छोड़ ही चुके हैं शुद्ध में उपदेश देना प्रशक्य है। विशेष टिकाव न होने से ही शुभ में पाते हैं किन्तु वे भी झूले की हिलोरमात्र । वे अवश्य व्यवहार इससे स्पष्ट है कि जब तक जीव संसार में को हेय, अभूतार्थ, प्रसत्पार्थ कह सकते हैं क्योंकि रहेगा उसे व्यवहार की शरण लेना पड़ेगा। इस अन्ततोगत्वा उन्हें तो निज पद पाने हेतु पर पद गाथा में म्लेच्छ शब्द संसारी जीवों के लिये का त्याग करना ही है और वह उन्हें निश्चय की समझना चाहिए क्योंकि जो संसार से ऊपर उठ शरण, या यों कहिए एक मात्र अपने प्रात्म द्रव्य चुके हैं वे पवित्र शुद्ध बुद्ध निरंजन एक स्वरूप एवम् टंकोत्कीर्ण हैं और जो ससार में हैं वे अशुद्ध, की शरण लेनी ही है फिर वे व्यवहार को उपादेय कैसे कहेंगे ? पर पाश्चर्य जो अशुभ में रचे हुए हैं अज्ञानी, विनाशी तथा दीनहीन हैं अत: म्लेच्छ के समान हैं। इसमें यदि तर्क की कोई गुंजाइश है तो शुद्ध की तो बात ही क्या शुभ की ओर भी नजर मात्र श्रद्धाविषयक पवित्रता की हो सकती है किन्तु नहीं कर सकते व्यवहार को हेय अनादरणीय और वह भी विरलों के हिस्सों की ही कही जा सकती अभूतार्थ कहते हैं। जिनके यहां रागद्वेष, मोह है शेष तो सब समान से ही हैं। मात्सर्य असूया तथा परस्पर ईर्ष्या द्वेष के भंडार भरे हैं उत्तम खाना, उज्ज्वल पहनना जमीन के व्यवहार के बिना निश्चय का पत्ता नहीं अधर चलना जिनको प्रिय है उनको व्यवहार हेय हिलता यह कुदकुद के वचन हैं किन्तु व्यवहार नहीं कहना चाहिये। को सर्वथा हेय कहने में कुछ विद्वान् नहीं चूकते । मैं कहता हूं वे कुदकुद को समझे ही नहीं। व्यवहार को निंद्य कहने वाले न तीन ओंकार प्राचाय देव ने श्रुत के माध्यम स अात्मतत्व का पढ़ सकते हैं मोर न पंचपरमेष्ठी की स्तुति ही कर जानने वाले सम्पूर्ण श्रु त के वेत्ता को श्रु त केवली सकते हैं पूजा अभिषेक दान सम्मान तो उनके लिये कहा है जो कि व्यवहार श्रु त के जरिये ही इस और भी परे की चीज है। पराकाष्ठा को पहुँचा है फिर उस व्यवहार का अपलाप कैसे किया जा सकता है ? हम लोग व्यवहारी जीव हैं। हमें निश्चय की जो हि सुएणहिगच्छइ अप्पारणमिणं तु केवलं अकाट्य श्रद्धा रखते हुए उत्तम व्यवहार की सुद्ध। तं सुयकेवलिमिसिणो भरणंति लोयप्पईवयरा॥ भूमिका निभानी चाहिए यदि हम किंचित् भी इस जो सुयणाणं सव्वं जाणइ सुयकेवली भूमिका से चिगते हैं तो समझिये हमने जिनागम तमाहुजिगा। को स्पर्श ही नहीं किया। 1-68 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014023
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1977
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1977
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size25 MB
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