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________________ फोड़ने पर खोपरा भी साथ में चोट खाकर फूटता कारण बनती है । यही परिग्रह की आकांक्षा भाई. है, परन्तु सूखे नारियल का खोपरा नरियल से भाई तथा पुत्र पिता के बीच वैर करा देती है । चिपका नहीं रहता है इसलिए नरेरी के फोड़ देने पर भी खोपरा नहीं फूटता है। इसी तरह वस्तुओं __जीवन को चार भागों में विभाजित किया के प्रति आसक्ति होने पर वस्तुओं के विछोह में । र गया था, उनमें गृहस्थ आश्रम में ही व्यक्ति परिदुःख का अनुभव होता है परन्तु प्रासक्ति न होने ग्रह संचय में कार्य करता था, उसमें भी गृहस्थ को पर दुःख नहीं होता है । आसक्ति नहीं रहती थी, इसलिए धन का परहित में दान किया जाता था। इस समय बाल अवस्था प्रासवित एवं संग्रह की भावना रखने के से ही मनुष्यों में विभिन्न प्रकार के संग्रह की प्रवृति कारण निर्धन भिखारी भी परिग्रही हो सकता है, पाई जाती है वानप्रस्थ और संन्यास जैसे प्राश्रम तो आसक्ति न रहने पर सम्पन्न प्रादमी भी अपरिग्रही अब लुप्त ही हो गए हैं । जन्म से मृत्यु पर्यन्त मनुष्य हो सकता है। राजा जनक को लोग अनासक्त अब संग्रह में ही लगा रहता है । संगृहीत वस्तुओं योगी कहते थे। श्रीराम जो राज्य छोड़कर वन को के लेखे जोखे में मनुष्य व्यस्त रहता है । मनुष्य गए तो उन्हें जरा भी दुःख नहीं हुआ क्योंकि उन्हें प्रात्म कल्याण सम्बन्धी सत्कर्मों का लेखा जोखा राज्य के प्रति प्रासक्ति नहीं थी। संस्कृत के एक करना भूल गया है । कवि ने इसी भाव को इस प्रकार है - यह भ्रान्त कल्पना, कि सुख वाहिरी वस्तुओं न विरक्ताः धनस्त्यक्ताः । में है मनुष्य को परि ग्रह के पंजे में जकड़े रहती है न विरक्ताः दिगम्बराः ।। परन्तु वाहिरी वस्तुओं के संग्रह में वास्तविक सुख नहीं है, मनुष्य का आकांक्षा जिस वस्तु के संग्रह विशेषरक्ताः स्वपदे । की होता है, उसके पाने के लिए बेचैनी रहती है, ते विरक्ताः मता: मम ।। तरह तरह की चिन्तामों के बाद कष्ट सहकर उस धन संग्रह तथा परिग्रह की तीव्र प्राकांक्षा के वस्तु को पा भी लेता है, तो उसके तत्काल बाद कारण मनुष्य सभी तरह के पाप एवं दुष्कर्म करके उससे भिन्न अन्य वस्तु को पाने की इच्छा उत्पन्न हो जाती है, इस प्रकार इच्छाओं का क्रम चलता भी धन संग्रह की चेष्टा करता है । डाकू लोग धन के लिए दूसरों की हत्या करके हिंसादि पाप के रहता है । सुख और सन्तोष का समय कभी प्राप्त भागी बनते हैं। संग्रह के लिए तस्करी, टेक्सों की नहीं होता है । प्रर्थशास्त्र की सिद्धान्त है कि एक चोरी प्रादि करके भी लोग झूठे हिसाब रखते है इक्छा दूसरी इच्छा को जन्म देती है रेडियो की तथा प्रसत्य व्यवहार का पाप करते हैं। न्यायालयों इच्छा पूरी होने पर टेलीविजन का, और मोटर में झूठी शपथ लेते हैं । धन संग्रह तीव्र लालसा के साईकिल की इच्छा पूरी होने पर कार लाने की कारण कई ललनाए वेश्या जैसा अब्रह्म का पेशा इच्छा उत्पन्न हो जाती है। प्राशागर्तः प्रतिप्राणी अपना लेती हैं। इस प्रकार संग्रह की लालसा अनेक यत्र विश्वमणू पमम्' प्रत्येक प्राणी की आशा कुकर्मों की जड़ है। राजनैतिक पद की तीव (इच्छा) का गड्ढा इतना बड़ा होता है कि उसको प्राकांक्षा दूसरे नेताओं की हत्या करा देती है। भरने के लिए सारे संसार के समस्त पदार्थ भी थोडे साम्राज्य की प्राकांक्षा दूसरे देशों पर प्राक्रमण कराती है तथा युद्ध जैसे नर संहारक कार्यों का सच्चे सुख का स्रोत प्रात्मा के भीतर है, परन्तु महावीर जयन्ती स्मारिका 71 1-61 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014023
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1977
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1977
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size25 MB
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