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________________ परिग्रह त्यागकर दिगम्बर रूप धारण कर महाव्रती ममत्व भाव या ग्रासक्ति को परिग्रह बताया है। बना जाय । परन्तु गृहस्थ लोगों का उत्तम अणुव्रत जिस प्रकार बैंक का कैशियर अथवा किसी सेठ का यह है कि जितने की आवश्यकता, उपयोग के लिए लेखाकार लाखों रुपयों का लेन देन करता है हो उतना धन रखकर शेष का त्याग किया जाय। परन्तु उन रुपयों के प्रति उनका ममत्व भाव नहीं मध्यम रूप यह है कि अभी जितनी सम्पत्ति है होता है । व्यक्ति का धन सम्पत्ति के प्रति मात्र उससे अधिक का संग्रह न करने का नियम लिया ज्ञाता द्रष्टा का भाव होना चाहिए जैसे दर्पण के जाय । यदि अधिक प्राय हो तो उसका त्याग किया समक्ष उपस्थित वस्तु का प्रतिबिम्ब दर्पण में झलजाय । तीसरा जघन्य रूप यह है कि जितनी कता है परन्तु वस्तु के हटते हो प्रतिबिम्ब मिट सम्पत्ति वर्तमान में है उससे दुगुने तक की सम्पत्ति जाता है । कैमरे की स्थिति दर्पण से भिन्न होती है, का नियम ले लिया जाय और कभी उससे अधिक कैमरे के समक्ष उपस्थित वस्तु का प्रतिबिम्ब निगेनहीं बढ़ने दी जाय । उसने मध्यम मार्ग का अनु- टिव में जम जाता है, किसी व्यक्ति का वस्तु के करण किया और नियम लिया कि इस समय मेरे प्रति इस प्रकार का लगाव नहीं होना चाहिए । पास जितनी सम्पत्ति है उससे अधिक का संग्रह इत प्रकार देश में सम्पत्ति का उत्पादन खुब नहीं करूंगा । अब तक जिन गायों का दूध बेचा होना चाहिए परन्त उस सम्पत्ति पर प्रासक्ति जाता था उसने अमावग्रस्त लोगों में दूध बांटना किसी व्यक्ति की नहीं होनी चाहिए । ऐसी सम्पति शुरू कर दिया, बगीचों के फलफूल बेचना बन्द देश तथा समाज के कल्याण के लिए होती है। करके लोगों में बांटना शुरू कर दिया तथा जो इस व्यवस्था में किसी व्यक्ति को दूसरों के प्रति दूसरों की प्रोर कर्ज था वह भी वापिस लेना ईा जलन की प्रवृत्ति नहीं उत्पन्न होती है । अस्वीकार कर दिया। प्राज संग्रह के लिए इतनी होड़ लगी है कि दूने की तो बात दूर रही सैकड़ों जिस प्रकार मछली की जल के प्रति तीव्र गुना धन बढ़ जाने पर भी बढ़ाते रहने की लालसा प्रासक्ति होने से वह जल के बाहर होते ही बेचैन बनी हुई है। सरकार ने ऋण माफी के कानून हो जाती है । परन्तु मेंढक जल में रहकर भी उससे बनाए हैं अन्यथा साहूकार मूलधन से कई गुना उतना प्रासक्त नहीं है अत: जल के बाहर रहने व्याज ही वसूल कर लेते थे। पर भी बेचनी अनुभव नहीं करता । किसी वस्तु के प्रति व्यक्ति का तीव्र रागात्मक सम्बन्ध हो और अपरिग्रह के चिन्तन में एक बात और समा - ऐसी वस्तु का विछोह हो जाय तो व्यक्ति को वेदना हित है कि देश के विकास के लिए अधिक से । होती है, वस्तु नहीं है परन्तु अपने मन की भावना अधिक उत्पादन एवं सम्पत्ति की समृद्धि होना ही हमें सुखी या दुःखी बनाती है। जिस प्रकार मच्छी बात है । व्यक्ति के लिए अपरिग्रह का व्रत कन्या का विवाह होने पर अपने बचपन के घर को है । व्यक्ति जो भी कमाए ईमानदारी से कमाए, पराया और वर पक्ष के पराए घर को अपना समपरन्तु उसका संग्रह न करके व्यय करता जाय, झने लगती है इसी प्रकार यदि व्यक्ति की दृष्टि क्योंकि विषमता अधिक उत्पादन से नहीं, बल्कि बदल जाय और व्यक्ति को सम्पत्ति के प्रति संग्रह की प्रवृत्ति से बढ़ती है। महावीर ने धन के प्रासबित न रहे तो यही अपरिग्रह होगा। अस्तित्व को परिग्रह नहीं कहा, उनकी परिभाषा में सूक्ष्म दृष्टि प्रतीत होती है। उन्होंने मूर्छा को जिस प्रकार कच्चे नारियल का खोपरे वाला परिग्रह कहा है। अर्थात् धन, सम्पत्ति के प्रति भाग नरेरी से चिपका रहता है और नरेरी के 1-60 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014023
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1977
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1977
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size25 MB
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