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________________ निश्चित ही हमें परिवर्तन की आवश्यकता है। अपने साथ, एक-दूसरे के साथ, राष्ट्रों के साथ और यहां तक कि पूरे पृथ्वी ग्रह के साथ हमारे मूलभूत संबंधों में परिवर्तन की आवश्यकता है। हम एक-दूसरे के दृष्टिकोणों की सापेक्षता एवं एक-दूसरे के साथ रहने की सापेक्षता को समझें। वैश्विक अंतर्निर्भरता के लिए हमारी आवश्यकता और यहां तक कि हमारी बाध्यता को समझें तो ही भविष्य की जिम्मेदारी ली जा सकती है। सापेक्ष सोच एवं सापेक्ष जीवन का यह परिवर्तन व्यक्ति से प्रारंभ होना चाहिए, क्योंकि चेतना व्यक्ति में है, राष्ट्र में नहीं । प्रथम परमाणु विस्फोट के समय काले घने गुबार को उठते देखकर बम के जनक रोबर्ट ओपनहीमर ने ऋग्वेद के एक वाक्य को याद करते हुए कहा था—I have become death-destroyer of the world. बाद में जब आइन्स्टीन को इस पर टिप्पणी करने के लिए कहा गया तो आइन्स्टीन ने कहा था- 'Now all men have become brothers.' दोनों दृष्टिकोण सही थे, किंतु सोच में, परिस्थिति-काल-सापेक्ष चिंतन में परिवर्तन आवश्यक था— जो आइन्स्टीन की टिप्पणी में स्पष्ट झलकता है। हेनरी फोर्ड ने लिखा है— Those who believe they can do something, and those who believe they can't, are both right. यहां हमें व्यक्ति के आत्मसंकल्प पर दृष्टिपात करना होगा हमारा ध्येय ही हमारी दिशा है और यही एक लक्ष्य प्राप्ति के लिए आवश्यक प्रक्रिया को शुरू करने का दृढ निश्चय है। इसलिए हम यह कह सकते हैं अभिप्राय ( इरादा ) - लक्ष्य + दृढ़ निश्चय हम प्रायः दूसरों के शब्दों को सुनते हैं, उस भाव या उस उद्देश्य को नहीं समझते जो उन शब्दों के पीछे है। हम हमारी संचार क्षमता या चेतनापूर्ण कार्य करने की पूर्ण क्षमता का उपयोग नहीं करते। इसीलिए अधिकांश विवाद जन्म लेते हैं। संचार के तीन चरण हो सकते हैं 1. प्रसंग (विषयवस्तु), 2. प्रक्रिया, 3 अभिप्राय । हम क्या कहते हैं या हम क्या करते हैं—यह प्रसंग (Content) है, यह हमारे शब्दों या कार्यों का शाब्दिक संदेश (Literal Message) है। हम कैसे कहते हैं या करते हैं यह प्रक्रिया है, जो अभिप्राय (Intention ) का साधन है। मार्च मई, 2002 Jain Education International हम क्यों कहते हैं या करते हैं—यह अभिप्राय (Intention) है। किसी शब्द या कार्य के पीछे मूल भावना, उसकी प्रेरणा और उसकी दिशा का यह द्योतक है। हम संचार के इन तीन चरणों पर ध्यान नहीं देते तथा संचार और सचेतन कार्य की हमारी क्षमता को कमजोर बना देते हैं । वस्तुतः ये तीनों एक-दूसरे से जुड़े 'गीयर' हैं। हम केवल प्रसंग देखते हैं, उसके पीछे प्रक्रिया और अभिप्राय को नहीं देखते। तीनों पर समान बल आवश्यक है, यदि हम सत्य तक पहुंचना चाहते हैं। दर्शनाचार्यों ने वस्तु के दो रूपों का वर्णन किया है— अवाच्य और वाच्य । अवाच्य का एक सूक्ष्म अंश वाच्य होता है और वाच्य का अनंतवां भाग वाणी का विषय बनता है। इसलिए केवल अभिव्यक्त सत्यांश अर्थात् विषयवस्तु को ही पूर्ण सत्य नहीं समझें। द्रष्टा आत्मा का सिद्धांत मनुष्य केवल अपने जीवन की प्रक्रिया मात्र नहीं है और न ही वह अपने शब्दों, विचारों व कृत्यों की विषयवस्तु (Content) है। मनुष्य अपने विचारों, यहां तक कि अपनी अनुभूतियों एवं विश्वासों से भी अलग है। वह द्रष्टा है, जिसे वस्तु की तरह नहीं जाना जा सकता। वह वि है, जिसे विषयी से ही जाना जा सकता है। मार्टिन बब्बर ने इसे I and thou relationship कहा है। The one you are looking for is the one who is looking अनुभूति से ही अनेकांत का रहस्य जाना जा सकता है। इस रहस्य को जानने के बाद विरोधी विचार व मन एक संपूर्ण सत्य के ही अंश लगेंगे । व्यक्ति, राष्ट्र, विचार, अच्छे-बुरे, काले सफेद के बीच हमारा अज्ञानी मन उनके मध्य की एकता को नहीं देख पाता। जो भिन्न प्रतीत होते हैं, वे भी किसी स्तर पर एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। जैसे ही हम अपनी सोच में विरोधी पक्षों के सह-अस्तित्व को स्वीकारते हैं, वे हमें विशाल खुले अंतरिक्ष के समान व्यापक बुद्धिमत्ता की ओर ले जाते हैं। यदि हम इसे नहीं स्वीकारते तो हम कैसे दूसरों को सुनने-समझने की हमारी क्षमता को विकसित कर सकते हैं और कैसे विभिन्न मुद्दों पर व्यापक स्तर पर सोच सकते हैं? हम जितने अधिक द्रष्टा आत्मा में केंद्रित होंगे, उतना ही अधिक हम दूसरों के मतों को अपने मत के आलोक में नहीं देखेंगे। यह प्रायः हम सबके साथ होता है कि हम जिससे असहमत हैं उसे अपने अनुरूप बदलने की कोशिश करते हैं। जब ऐसा नहीं होता तब हम उसकी स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती For Private & Personal Use Only अनेकांत विशेष • 51 www.jainelibrary.org
SR No.014015
Book TitleJain Bharti 3 4 5 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhu Patwa, Bacchraj Duggad
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year2002
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size33 MB
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