SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 146
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकांतवाद केवल तर्क का सिद्धांत नहीं, किंतु उसमें एक नहीं अनंत गुण हैं। उन अनंत गुणों को जानने के अनुभवमूलक सिद्धांत है। लिए अपेक्षा दृष्टि की आवश्यकता है और यह अपेक्षा दृष्टि ही अनेकांतवाद है। आचार्य हरिभद्र ने भी विचार व्यक्त करते हुए कहा आग्रह बत निनीषति युक्तिं तत्र यत्र मतिरस्य निविष्टा । पक्षपातरहितस्य तु युक्तियंत्र तत्र मतिरेति निवेशम् ।। 'कदाग्रही व्यक्ति की जिस विषय में मति होती है, उसी विषय में वह अपनी युक्ति लगाता है, परंतु एक निष्पक्ष व्यक्ति उस बात को स्वीकार करता है जो युक्तिसिद्ध होती है।" ऋग्वेद में भी 'एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति" अर्थात् एक ही सत् तत्त्व का विद्वान विभिन्न प्रकार से वर्णन करते हैं, के रूप में अनेकांतवाद अथवा स्याद्वाद का बीजवाक्य उपलब्ध होता है। जैन दर्शन का स्पष्ट मंतव्य है कि 'प्रत्येक पदार्थ में अनंत धर्म हैं'।' वह अनंत गुणों और विशेषताओं को धारण करने वाला है। वस्तु के अनंत धर्मात्मक होने का अर्थ है, सत्य आकाश की तरह अनंत है और उस अनंत सत्य को निहारने के लिए दृष्टि भी अनंत चाहिए विराट दृष्टि के द्वारा ही उस अनंत सत्य का साक्षात्कार किया जा सकता है। एकांगी व सीमित दृष्टि से सत्य के पूर्ण रूप को, कभी भी देखा व परखा नहीं जा सकता। एक ही दृष्टि से पदार्थ के पर्यालोचन की पद्धति एकांगी व अप्रमाणित है। अनेकांत का तात्पर्य है 'न एकांत अनेकांत' अर्थात् जो एकांत नहीं है वह अनेकांत है और बाद का अर्थ है सिद्धांत या मंतव्य । दोनों का अर्थ हुआ जो एकांत नहीं है वह मंतव्य अनेकांतवाद पदार्थ के उन अनंत धर्मों की ओर ध्यान केंद्रित करता हुआ कहता है-वस्तु अनंत गुणात्मक है, मार्च - मई, 2002 Jain Education International मुनि नथमल (वर्तमान आचार्यश्री महाप्रज्ञ) के शब्दों में—' वस्तु के अनंत पर्याय हैं, अनंत कोण हैं। वस्तु के धरातल पर अनंत कोणों का होना ही परम सत्य है। अनंत कोणों का होना विरोध नहीं है। उनका हमारी बुद्धि की पकड़ में न आना विरोध प्रतीत होता है। तरंगित समुद्र का दर्शन, निस्तरंग समुद्र के दर्शन से भिन्न होता है, निस्तरंग होना और तरंगित होना पर्याय हैं। इन दोनों पर्यायों के नीचे जो अस्तित्व है, वह पहले और पीछे दोनों क्षणों में होता है।' उनका समग्र दर्शन अनंत दृष्टिकोण से ही हो सकता है। उनका प्रतिपादन भी अनंत वचनभंगियों से ही हो सकता है । वस्तु के समग्र धर्मों को जाना जा सकता है पर कहा नहीं जा सकता। एक क्षण में एक शब्द द्वारा एक ही धर्म कहा जा सकता है। एक धर्म का प्रतिपादन समग्र का प्रतिपादन नहीं हो सकता है और समग्र को एक साथ कह सके, वैसा कोई शब्द नहीं है। इस समस्या को निरस्त करने के लिए भगवान ने सापेक्ष दृष्टिकोण के प्रतीक शब्द 'स्यात्' का चुनाव किया। # स्याद्वाद का आशय है 'एक खंड के माध्यम से अखंड वस्तु का निर्वाचन अनेकांतवाद अथवा स्याद्वाद वस्तुतः सुरमित फूलों का बगीचा है जिसमें नाना रंग और नाना प्रकार की सौरभ में महकते हुए अनेक प्रकार के फूल खिले रहते हैं। प्रत्येक फूल अपनी मोहक सौरभ महकाता है, किंतु दूसरे की सौरभ व सुंदरता पर किसी प्रकार का आघात नहीं करता। इसी प्रकार अनेकांतवाद के उद्यान में विविधता में एकता और एकता में विविधता, नित्यत्व में अनित्यत्व व अनित्यत्व में नित्यत्व आदि प्रकार के विचार- पुष्पों के दर्शन किए जा सकते हैं। इस विराट सिद्धांत के द्वारा विश्व के समस्त दर्शनों व धर्मों का समन्वय सहजता से किया जा सकता है, लेकिन खेद का विषय यह है कि हमने इसे सिद्धांत रूप में तो स्वीकारा, परंतु जीवन से जोड़ नहीं पाए । अतः अनेकांत दृष्टि को जिस भाषा के माध्यम से व्यक्त किया जाता है—वह स्याद्वाद है। अनेकांत दृष्टि है और स्याद्वाद उस दृष्टि की अभिव्यक्ति की वचन शैली है । अनेकांतवाद और स्याद्वाद में मुख्य अंतर यह है कि अनेकांत विचार प्रधान है और भाषा-प्रधान है । देवेन्द्रमुनि शास्त्री ने कहा कि 'अनेकांतवाद तर्क का सिद्धांत नहीं, अपितु अनुभवमूलक सिद्धांत है' । " स्याद्वाद स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती - For Private & Personal Use Only अनेकांत विशेष • 145 www.jainelibrary.org
SR No.014015
Book TitleJain Bharti 3 4 5 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhu Patwa, Bacchraj Duggad
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year2002
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy