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________________ अनेकांठ : न एकांत हेमन्तकुमार डूंगरवाल ARTHAN अनेकांतवाद पदार्थ के उन अनंत धर्मों की ओर ध्यान केंद्रित करता हुआ कहता है, वस्तु अनंत गुणात्मक है, उसमें एक नहीं अनंत गुण । उन अनंत गुणों को जानने के लिए। अपेक्षा दृष्टि की आवश्यकता है और यह अपेक्षा दृष्टि ही अनेकांतवाद है। भारतीय दर्शन के इतिहास में जैन दर्शन एक उन्होंने अपने ग्रंथ 'सन्मतितर्क' में अनेकांतवाद की प्रौढ़ अनोखी देन है। भारतीय दर्शन परंपरा के भाषा में और तर्कपुष्ट पद्धति से व्याख्या की है। पन्नों को पलटकर उनमें उल्लिखित दर्शनशास्त्र की दीर्घ आचार्य समंतभद्र ने भी आप्त-मीमांसा ग्रंथ में जो परंपरा को यदि हम देखें और समझने का प्रयत्न करें तो अनेकांत की विशद व गहन व्याख्या की है वह अपने ढंग की किसी तरह का संदेह नहीं रहता कि भारतीय दार्शनिक अनठी है। आचार्य हरिभद्र ने अपने 'अनेकांतवाद-प्रवेश' परपरा को अनेकातवाद के रूप मे जैन दर्शन ने एक विशिष्ट और 'अनेकांतवाद-पताका' जैसे विशिष्ट ग्रंथों में अनेकांत सिद्धांत प्रदान किया है। का तर्कपूर्ण प्रतिपादन किया है। आचार्य अकलंक ने अहिंसा और अनेकांत जैन दर्शन के प्राणभूत हैं। 'सिद्धिविनिश्चय' ग्रंथ में अनेकांत का उज्ज्वल रूप हमारे शरीर में जो स्थान मन और मस्तिष्क का है, वही उपस्थित किया है। उपाध्याय यशोविजयजी ने स्थान जैन दर्शन में अहिंसा और अनेकांत का है। अहिंसा अनेकांतवाद-व्यवस्था', 'अनेकांतवाद-प्रवेश' आदि ग्रंथों में आचारप्रधान है और अनेकांत विचारप्रधान है। अहिंसा नव्य न्याय की शैली में अनेकांत की महत्त्वपूर्ण व्याख्या की व्यावहारिक है—उसमें प्राणीमात्र के प्रति दया. करुणा व है जो अपने-आप में अद्भुत है। मैत्री की निर्मल भावना निवास करती है, तो अनेकांत पाश्चात्य विचारकों में थॉमस, आइन्स्टीन आदि इस बौद्धिक अहिंसा है, उसमें विचारों की विषमता, सिद्धांत के प्रबल समर्थक रहे हैं। आइन्स्टीन ने सापेक्षवाद मनोमालिन्य, दार्शनिक विचारभेद और उससे उत्पन्न होने के सिद्धांत को इसी भूमिका पर प्रतिष्ठित किया। थॉमस ने वाला संघर्ष नष्ट होता है और सह-अस्तित्व, सद्व्यवहार इस सिद्धांत के विषय में कहा है-'स्याद्वाद का सिद्धांत के विमल विचारों के पुष्प महकने लगते हैं। बड़ा गंभीर है, यह वस्तु की भिन्न-भिन्न स्थितियों पर अच्छा भगवान महावीर की मूल वाणी में जो अनेकांतवाद प्रकाश डालता है।' जैन दर्शन के अनेकांतवाद की भारतीय बीज रूप में सुरक्षित था उसे बाद के आचार्यो ने पल्लवित- मनीषियों ने भी भूरि-भूरि प्रशसा की है। पुष्पित ही नहीं किया, अपितु इस पर होने वाले आक्षेपों महान दार्शनिक सिद्धसेन दिवाकर ने सन्मतितर्क में और प्रहारों का भी तर्कसंगत उत्तर दिया। इसके अनेकांतवाद को विश्व का गुरु कहा है। उनका मंतव्य है व्याख्याकारों में उमास्वाति, सिद्धसेन, समंतभद्र, किमल्लिषेणसूरि, अकलंक, हरिभद्र, उपाध्याय यशोविजय, जेण विणा लोगस्य वि, ववहारो सव्वहा न निव्वइड। आचार्यश्री महाप्रज्ञ आदि के नाम प्रमुख हैं। तस्स भुवणेक्क-गुरुणो णमो अणेगंत-वायस्य।।' उमास्वाति के तत्त्वार्थाधिगमसूत्र और तत्त्वार्थ भाष्य अर्थात् 'इस अनेकांतवाद के बिना लोक का व्यवहार में अनेकांतवाद पर विवेचन देखने को मिलता है।' चल नहीं सकता। मैं उस अनेकांत को नमस्कार करता हूं जो अनेकांतवाद के व्याख्याकारों में सिद्धसेन का नाम प्रमुख है। जन-जन के जीवन को आलोकित करने वाला गुरु है।' स्वर्ण जयंती वर्ष 144 . अनेकांत विशेष | जैन भारती मार्च-मई, 2002 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014015
Book TitleJain Bharti 3 4 5 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhu Patwa, Bacchraj Duggad
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year2002
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size33 MB
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