SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 130
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भासादुगं धम्मसमुट्ठितेहिं लोक, आत्मा आदि को अव्याकृत कहकर छोड़ दिया। वियागरेज्जा समयाऽऽसुपण्णे।। (1/14-22) भगवान महावीर ने उनका निरूपण द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की दृष्टि से किया। गुण व पर्यायों को धारण करने वाली भिक्षु किसी पदार्थ के प्रति अशंकित हो, फिर भी वस्तु स्वयं एक द्रव्य है। उस द्रव्य का आकार या संस्थान सत्य के प्रति विनम्र होकर प्रतिपादन करे। प्रतिपादन में उसका क्षेत्र है, क्योंकि आकार क्षेत्रात्मक परिमाण वाला विभज्यवाद (भजनीयवाद या स्याद्वाद) का प्रयोग करे। होता है। परिणमनशील पर्याय उस द्रव्य का काल है, आशुप्रज्ञ मुनि धर्म के लिए समुत्थित पुरुषों के साथ विहार क्योंकि पर्यायों की स्थिति काल परिमाण वाली होती है। करता हुआ दो भाषाओं (सत्य भाषा और व्यवहार भाषा) । उसके गुण द्रव्य के स्वभाव कहलाते हैं क्योंकि वे भावात्मक का समतापूर्वक प्रयोग करे। इस श्लोक में प्रयुक्त शंकित होते हैं। प्रत्येक वस्तु स्वचतुष्टय की अपेक्षा से सत् है का तात्पर्य संदिग्ध नहीं किंतु अनाग्रह है। और परचतुष्टय की अपेक्षा से असत् है, जैसा कि स्वामी विभज्यवाद के चूर्णिकार ने दो अर्थ किए हैं- समन्तभद्र ने लिखा हैभजनीयवाद या अनेकांतवाद। तत्त्वार्थ के प्रति अशंकित न सदेव सर्वं को नेच्छेत्स्वरूपादि चतुष्टयात्। होने पर भजनीयवाद का सहारा लेकर मुनि कहे-मैं इस असदेव विपर्यासान्न चेन्न व्यवतिष्ठते।। विषय में ऐसा मानता हूं। इस विषय की विशेष जानकारी के (आप्तमीमांसा, 15) लिए अन्य विद्वानों को भी पूछना चाहिए। दर्शन-युग में अनेकांतविभज्यवाद का दूसरा अनेकांत के फलित हैं-नयवाद और आचार्य कुन्दकुन्द ने वस्तुअर्थ है-अनेकांतवाद। जहां सप्तभंगीवाद। इन्हीं दो सिद्धांतों में स्वरूप के निरूपण में निश्चय परवर्ती आचार्यों ने सूक्ष्म रूप से गहन नय और व्यवहार नय की दृष्टि जैसा उपयुक्त हो वहां अपेक्षा चर्चा कर अनेक प्रश्नों का सयोक्तिक का सहारा लेकर वैसा प्रतिपादन का प्रयोग किया। आगम में जहां समाधान किया। तात्त्विक और आचारकरे। अमुक वस्तु नित्य है या द्रव्य और पर्याय का भेद और मीमांसा में अनेकांत के विविध प्रयोग अभेद माना गया है वहां आचार्य अनित्य? ऐसा प्रश्न करने पर जैन दार्शनिक साहित्य में उपलब्ध हैं। अमुक अपेक्षा से यह नित्य है, स्पष्ट करते हैं कि द्रव्य और आचार्य महाप्रज्ञ ने 'जैन दर्शन और अमुक अपेक्षा से यह अनित्य अनेकांत' में लिखा है कि-अनेकांत का पर्याय का भेद व्यवहार के है-इस प्रकार उसको सिद्ध अर्थ है-अभिन्नता को स्वीकार करना आश्रय से है, जबकि निश्चय से करे। और भिन्नता में सह-अस्तित्व की दोनों का अभेद है। प्रवचनसार संभावना को खोजना। प्रत्येक द्रव्य का और पंचास्तिकाय ग्रंथों में द्रव्य, वृत्तिकार ने विभज्यवाद स्वतंत्र अस्तित्व है। अनेकांत सह गुण, पर्याय तथा सप्तभंगीवाद के तीन अर्थ किए हैं अस्तित्ववादी दृष्टिकोण को प्रस्तुत कर का निरूपण किया गया है। 1. पृथक्-पृथक् अर्थों का निर्णय पक्ष के साथ प्रतिपक्ष की स्थिति को । करने वाला, 2. स्याद्वाद और तत्त्वार्थ सूत्र में वस्तु के अनिवार्य मानता है। हमें 'परस्परोपग्रहो 3. अर्थों का सम्यक् विभाजन जीवानाम्' सूत्र को दृष्टिगत रखते हुए अधिगम में प्रमाण और नय को करने वाला वाद। जैसे द्रव्य की वैयक्तिक, सामाजिक, धार्मिक एवं साधन कहा गया है। यद्यपि यहां अपेक्षा से नित्यवाद, पर्याय की राजनीतिक समस्याओं के निराकरण में अनेकांत शब्द नहीं है, परंतु अपेक्षा से अनित्यवाद। सभी अनेकांत दृष्टि का प्रयोग करना चाहिए। वस्तु-लक्षण में 'उत्पादव्ययपदार्थों का अस्तित्व अपनेवर्तमान संदर्भो के परिप्रेक्ष्य में जैन ध्रौव्ययुक्तं सत्' तथा अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और दार्शनिक ग्रंथों का अनुशीलन 'अर्पितानर्पित सिद्धेः' सूत्रों में भाव की अपेक्षा से है। परद्रव्य, अपेक्षित है। अनेकांत की दृष्टि स्पष्ट रूप से क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा परिलक्षित है। 'अर्पितानर्पित से नहीं है। सिद्धेः' सूत्र को स्पष्ट करते हुए भगवान बुद्ध ने जिन तात्त्विक प्रश्नों...-जैसे- पं. सुखलाल संघवी ने लिखा है प्रत्येक वस्तु अनेक स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च-मई, 2002 अनेकांत विशेष • 129 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014015
Book TitleJain Bharti 3 4 5 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhu Patwa, Bacchraj Duggad
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year2002
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy