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________________ में या प्रतिपक्ष में खड़ा नहीं होता, किंतु सत्य को सापेक्ष दृष्टि से स्वीकार करता है। नियतिवादी नियति के सिद्धांत को ही परम सत्य मानकर दूसरे सिद्धांतों का खंडन करते थे, तब भगवान महावीर ने कहा- 'नियतिवाद ही तत्त्व हैइस प्रकार का गर्व दुख से पार पहुंचाने वाला नहीं है, दुख के जाल में फंसाने वाला है।' इस श्लोक को अनेकांतदृष्टि की पृष्ठभूमि के रूप में देखा जा सकता है। सर्वज्ञाय निरस्तबाधकधिये स्याद्वादिने ते नम स्तात्प्रत्यक्षमलक्षयन् स्वमतमभ्यस्याप्यनेकान्तभाक् । तत्त्वं शक्यपरीक्षणं सकलविन्नैकान्तवादी ततः, प्रेक्षावानकलङ्क याति शरणं त्वामेव वीरं जिनम् ।। होता है, अतः एकांतवादी बौद्ध आदि अपने मत का अभ्यास प्रमाण और नय से जीवादि तत्त्वों का सम्यक् ज्ञान करके, प्रत्यक्ष से ग्राह्य और परीक्षा करने के लिए शक्य भी पं. सुखलाल संघवी ने सन्मति तर्क की प्रस्तावना में अनेकांत के ऐतिहासिक विकास के संबंध में लिखा है— 'भगवान महावीर से पहले भारतीय वांग्मय में अनेकांत दृष्टि नहीं थी, ऐसा तो नहीं कहा जा सकता, प्राचीन अनेकांतात्मक तत्त्व की ओर लक्ष्य नहीं करते। अतः वे सर्वज्ञ नहीं हो सकते। इसलिए विचारशील निर्दोष परीक्षक जन आप वीर जिनेंद्र की ही शरण में जाते हैं। अतः जैन आगमों के पूर्ववर्ती और सम-समयवर्ती दूसरे दार्शनिक सर्वज्ञता, दोष और आवरण से रहित ज्ञानवान तथा स्याद्वादी आपके लिए हमारा नमस्कार है। साहित्य के साथ तुलना करने पर यह तो स्पष्ट ही लगता है कि अनेकांत दृष्टि का स्पष्ट एवं व्यवस्थित निरूपण तो भगवान महावीर के उपदेशरूप माने जाने वाले जैन आगमों में ही है। उपलब्ध जैन अंग ग्रंथों में अनेकांत दृष्टि की तथा उसमें से फलित होने वाले दूसरे वादों की चर्चा तो है, परंतु वह बहुत संक्षिप्त, बहुत ही थोड़े ब्यौरे वाली तथा कम उदाहरणों वाली है । आगम के निर्युक्ति, भाष्य और चूर्णि जैसे प्राकृत साहित्य में यह चर्चा बहुत लंबी तो अवश्य दिखाई पड़ती है, परंतु उसमें तर्क शैली एवं दार्शनिक वाद-प्रतिवाद बहुत ही कम हैं। जैन वांग्मय में संस्कृत भाषा का और उसके द्वारा तर्क शैली तथा दार्शनिक खंडनमंडन का प्रवेश होते ही अनेकांत की चर्चा विस्तृत बनती है, उसमें नई-नई सचाइयों का समावेश होता है। ईसा के बाद होने वाले जैन दार्शनिकों ने जैन तत्त्वविचार को अनेकांतवाद के नाम से प्रतिपादित कर भगवान महावीर को उस वाद का उपदेशक बताया है। 'लघीयस्त्रय' में आचार्य अकलंक ने लिखा है— 128 • अनेकांत विशेष आचार्यश्री महाप्रज्ञ ने लिखा हैअनेकांत ने तत्त्व की व्याख्या की । तत्त्व के दो पहलू हैं। एक है द्रव्य और दूसरा है पर्याय । द्रव्य मूल में होता है और पर्याय अपर होता है। परिवर्तन के बिना कोई अपरिवर्तनीय नहीं होता और अपरिवर्तन के बिना कोई परिवर्तन नहीं होता परिवर्तन और अपरिवर्तन — दोनों साथ-साथ चलते हैं। एक मूल में रहता है और एक फूल में रहता है। फूल हमें दिख जाता है। मूल गहरे में होता है, सामने नहीं दिखता। कभी-कभी कुछेक लोग मूल को उखाड़ने का प्रयत्न करते हैं वे परिवर्तन को स्वीकार करते हैं। मूल को अस्वीकार करते हैं। कभी-कभी कुछेक लोग मूल पर ही अपना सारा ध्यान केंद्रित कर देते हैं और सामने दीखने वाले फूल को अस्वीकार कर देते हैं। वह एकांगी दृष्टिकोण है। अनेकांत ने दोनों को स्वीकृति दी। मूल का भी मूल्य है और फूल का भी मूल्य है। Jain Education International प्राचीन दार्शनिक मतों, वादों और दृष्टिकोणों के अध्ययन के लिए सूत्रकृतांग का अत्यंत महत्त्व है। इस आगम में भिक्षु कैसी भाषा का प्रयोग करे ? इस प्रश्न के प्रसंग में बताया गया है स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती इसको स्पष्ट करते हुए पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री ने लिखा है— विचार करने पर वस्तु तत्त्व अनेकांतात्मक ही सिद्ध होता है, फिर भी जो एकांतवादी हैं—वे अपने मत के अभ्यास से इतने बंध गए हैं कि प्रत्यक्ष से प्रतीत और जिसकी परीक्षा भी की जा सकती है, ऐसे तत्त्व को भी दुर्लक्ष्य करते हैं। तत्त्व के यथार्थ स्वरूप को न जानने वाले एकांतवादी कैसे सर्वज्ञ हो सकते हैं ? इसी से विचारक जन स्याद्वादी महावीर भगवान की शरण में जाते हैं, क्योंकि वे सर्वज्ञ हैं, उनके ज्ञान की सब अंतरंग और बाह्य बाधाएं दूर हो गई हैं। संकेज्ज याऽसंकितभाव भिक्खू विभज्जवायं च वियागरेज्जा । For Private & Personal Use Only मार्च - मई, 2002 www.jainelibrary.org
SR No.014015
Book TitleJain Bharti 3 4 5 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhu Patwa, Bacchraj Duggad
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year2002
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size33 MB
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