SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 119
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रूप बन गया। बैड़ पालने धातु भ्वादिगणीय है, यहां पर 'कर्तरिशप्' से शप् प्राप्त है, उसका लोप नहीं होना है, फिर भी लोप होकर लोट्लकार में 'त्राघ्यम्' रूप बना। निरुक्त—निरुक्त के रचनाकार महर्षि यास्क हैं जिनका समय ई.पू. 800 वर्ष माना जाता है। इसमें भाषिक अनेकांत के अनेक उदाहरण मिलते हैं। सर्वप्रथम इसके स्वरूप पर दृष्टिपात करते हैं। निरुक्त वैदिक शब्दों का श्रेष्ठ निर्वचन ग्रंथ है इसका मूल रूप निघंटु है। वैदिक शब्दों का संग्राहक ग्रंथ निघंटु है । निरुक्त के प्रारंभिक वाक्य भाषिक अनेकांत की दृष्टि से उदाहरणीय हैं— समाम्नायः समाम्नातः । स व्याख्यातव्यः । तमिमं - समाम्नायं निघण्टव इत्याचक्षते निघण्टव कस्मात् । निगमा इमे भवन्ति । छन्दोभ्यः समाहृत्य समाहृत्य समाम्नाताः । ते निगन्तवः एव सन्तो निगमनान्निघण्टव उच्यन्त इत्यौपमन्यवः । अपि वा हननादेव स्युः । समाहता भवन्ति । यद्धा समाहृता भवन्ति ( निरुक्त प्रथम अध्याय) । अर्थात् समाम्नाय समाम्नात है। उसकी व्याख्या करनी है। वह समाम्नाय (वैदिक शब्दों का संग्रह) ग्रंथ निघंटु ( निघंटवः) कहलाता है। निघंटवः शब्द किस धातु से व्युत्पन्न है? ये वेदों से उद्धृत शब्द हैं (निगमा) अथवा पुनः पुनः वैदिक सूक्तों से एकत्र करने के पश्चात् वे परंपरा से प्राप्त किए गए हैं। आचार्य औपमन्यवः की सम्मति है, चूंकि ये वेदों से उद्धृत शब्द हैं, इनका नियमपूर्वक कथन हुआ है अथवा ये नियमपूर्वक एकत्र किए गए हैं, अतः इन्हें निघण्टवः कहते हैं। यहां पर यह द्रष्टव्य है कि मात्र एक निघंटु या 'निघंटव' शब्द की अनेक व्युत्पत्तियां दी गई हैं जो एक ही शब्द में परस्पर विरुद्ध - अविरुद्ध धर्मों की अवस्थिति की सूचना देती हैं। 2. यह शब्द सम् एवं आ उपसर्गपूर्वक हन् धातु से भी निष्पन्न माना गया है— अपिवा हननादेव स्युः । समाहंतु — निघंटु बना है। यहां पर हन् धातु का प्रयोग भी विरोधी-अविरोधी धर्मों के समवाय का सूचक है । हन् धातु का प्रयोग हिंसा के अर्थ में होता है, जबकि यहां पर पाठ अर्थ में प्रयुक्त है। निघंटु समाहतु समाहता भवन्ति अर्थात् निघंटु के पद वैदिक मंत्रों से चुन-चुनकर नियमपूर्वक पढ़े 118 • अनेकांत विशेष गए हैं। आचार्य पतंजलि ने हन् धातु के हिंसा एवं गति के अतिरिक्त पाठ अर्थ की ओर भी निर्देश किया है प्रसिद्धश्च पाठायें हन्तेः प्रयोगाः । ब्राह्मणे इदमाहतम् सूत्रे इदमाहतम् । Jain Education International 3. सम् एवं आङ्ग उपसर्गपूर्वक 'हञ्' हरणे धातु से भी निघंटु शब्द निष्पन्न हुआ है— यद्वा समाहृता भवन्ति । यहां समाहर्तुं से निघंटु बना है। 1. निघंटु शब्द नि उपसर्गपूर्वक गम् धातु से व्युत्पन्न मीमांसा की है। इन्हीं सिद्धांतों के विवेचन क्रम में आचार्य है— निगंतु—– निघंटु | यास्क की वाणी भाषिक अनेकांत के रूप में विमर्शनीय है—विशयवत्यो हि वृतयो भवन्ति – (निरुक्त द्वितीय अध्याय ।) अर्थात् संश्लिष्ट रचनाएं प्रायः अपवादों से युक्त होती हैं। यह अपवाद स्वीकरण ही भाषिक अनेकांत है। निरुक्त के प्रतिपाद्य में भाषिक अनेकांत-निरुक्त की परिभाषा में इसके पांच प्रतिपाद्यों का निर्देश है—इस विषय में एक कारिका प्रसिद्ध है— वर्णागमो वर्णविपर्ययश्च द्वौ चापरी वर्णविकारनाशौ । धातोस्तदर्थातिशयेन योगस्तदुच्यते पंचविद्यं निरुक्तम् ।। ( भाषा विज्ञान एवं भाषा शास्त्र, पृ. 488 पर उद्धृत) अर्थात् वर्णागम वर्णविपर्यय, वर्णविकार, वर्णनाश तथा धातुओं का अर्थविस्तार आदि पांच प्रकार के प्रतिपाद्य निरुक्त के हैं। यहां ध्यातव्य है कि निरुक्त के प्रतिपाद्य विषय परस्पर विरुद्ध हैं, लेकिन एक ही निरुक्त में अवस्थित हैं। पूर्व उदाहरण निघंटु के निर्वाचन में इन पांचों रूपों को देखा जा सकता है। निर्वचन के सिद्धांत और भाषिक अनेकांत आचार्य यास्क के द्वारा तीन प्रकार के शब्द भेद स्वीकृत हैं— 'प्रत्यक्षवृत्ति, परोक्षवृत्ति अतिपरोक्षवृत्ति । प्रत्यक्षवृत्ति के शब्द वे हैं जिनका प्रकृति प्रत्यय स्पष्ट रूप से परिलक्षित हो। जिनके प्रकृति प्रत्यय का पता कुछ कठिनता से — क्रिया की गति या सादृश्य के आधार पर लगे उसे परोक्षवृत्ति कहते हैं। अतिपरोक्षवृत्ति वाले वे शब्द हैं जिनका प्रकृति-प्रत्यय अवबोध संभव नहीं हो सके । यास्क ने इन तीनों प्रकार के शब्दों के निर्वचन सिद्धांत की इस प्रकार भाषिक अनेकांत की उपलब्धता वैदिक भाषा किंवा संस्कृत भाषा में भी देखी जा सकती है। स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती For Private & Personal Use Only मार्च मई, 2002 www.jainelibrary.org
SR No.014015
Book TitleJain Bharti 3 4 5 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhu Patwa, Bacchraj Duggad
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year2002
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy