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________________ सामान्य के साथ विशेष का अस्तित्व स्वीकार किए बिना भाषा का ज्ञान संभव ही नहीं है। इस तथ्य के प्रतिपादन में वहीं पर आचार्य पतंजलि ने बृहस्पति और इन्द्र के आख्यान से तथ्य को पुष्ट किया है— कर्तृकरणे कृताबहुलम् (2.1.31 ) अर्थात् जो तृतीयांत कर्ता एवं कारण वाचक शब्द हैं, वे समर्थ कृदंत सुबंत के साथ बहुल करके समास को प्राप्त होते हैं, अर्थात् समास होगा और नहीं भी। दोनों विरोधी धर्मों की उपस्थिति निम्नलिखित उदाहरणों में देखी जा सकती है--अहिना हतः अहिहतः । समास होने पर अहिहतः नहीं इंद्रश्चाध्येता दिव्यं वर्षसहस्रंममध्ययनककालो न होने पर यथावत् अहिनाहतः । इसी प्रकार वृकहतः। यह तृतीयांत करण का तृतीयांत कर्ता का उदाहरण बना है उदाहरण बृहस्पतिरिन्द्राय दिव्यंवर्षसहस्रं प्रतिपदोक्तानां शब्द पारायणं प्रोवाचनान्तं जगाम् । बृहस्पतिश्च वक्ता । चांत जगाम् किं पुनर द्यत्वे, यो अधिकं जीवति स वर्षशतं जीवति । ( महाभाष्य, प्रथमालिक, पू. 20) वहीं पर आचार्य ने सामान्य विशेष की सत्ता स्वीकृति से प्राप्त लाभ का भी उल्लेख किया हैयेताल्पेन यत्नेन महतोमहतः पद्येरन् (महा. प्र. पृ. 20 ) शब्दौघान्प्रति अर्थात् सामान्य-विशेष से युक्त शास्त्र के द्वारा थोड़े से यत्न से ही महान से महान शब्दराशियों का परिज्ञान हो जाता है। 3 विभाषा — बहुल, विकल्प, आदि व्याकरण साहित्य के विशिष्ट शब्द भाषिक अनेकांत के संसूचक हैं। विभाषा शब्द का प्रयोग पाणिनि ने किया है 'न वेति विभाषा' (1.1.44) अर्थात् निषेध और विकल्प को विभाषा कहते हैं। विभाषा स्थलों में निषेध और विकल्प दोनों की प्रवृत्ति होती है। प्रथमतया निषेध से विषय का समीकरण हो जाने पर पुनः विकल्प की प्रवृत्ति होती है। बहुलम् बहून् अर्थान् लातीति बहुलम् अर्थात् जो बहुत अर्थों को प्राप्त करे वह बहुलम् है। 'बहुलम् प्रयोग' से तात्पर्य ऐसे नियमों से है जिनका प्रयोग कुछ विशेष अवस्थाओं में निर्दिष्ट होता है, उन्हें छोड़कर अन्यत्र भी प्रयुक्त हो जाते हैं 'बहुलम्' के चार प्रकार बताए गए हैं— दात्रेणलूनं दालूनम् । परशुना छिन्न परशुछिन्नः । नखैर्निर्भिन्न नखनिर्भन्नः । इत्यादि उदाहरणों में दो विरोधी घटनाएं एक साथ उपस्थित होकर भाषिक अनेकांत की सूचना देती हैं इसी प्रकार विशेषणं विशेष्येणबहुलम् (स. 56) 56) भी भाषिक अनेकांत का सूचक है। 'अन्यतरस्याम्' शब्द विकल्प का वाचक है। पृथक्, बिना, प्रथग्विनानानाभिस्तृतीयाऽन्यतरस्याम् (2.3.32) यहां पर नाना – इन शब्दों के योग में तृतीया विभक्ति विकल्प से होती है। पक्ष में पंचमी विभक्ति भी होती है। तृतीया का अर्थ है साधन और पंचमी का अर्थ है अलगाव दो विपरीत धर्मों का प्रयोग पृथक् आदि शब्दों के साथ देखा जा सकता है— पृथक् ग्रामेण पृथक् ग्रामात् । बिना घृतेन, बिना घृतात् । नाना देवदत्तेन, नाना देवदत्तात् । इन उदाहरणों में दो विरोधी भावों की समान अस्तित्वात्मक उपस्थिति देखी जा सकती है। 'बहुलं छन्दसि' – यह सूत्र वैदिक व्याकरण में बहुत प्रसिद्ध है। यह वैदिक भाषा में बहुलता की सूचना देता है 22 सौ धातुओं को पाणिनि ने दस गणों में विभाजित किया है। प्रत्येक गण के अलग-अलग विकिरणों (मध्य प्रत्यय) का निर्देश है। अदप्रभृतिम्यः शपः (पा. 2.4.72) से अदादिगणीय धातुओं से परे प्राप्त 'श' का लुक (लोप) हो जाता है। लेकिन वैदिक प्रयोग विषय में यह नियम बहुल करके होता है। बहुलं छन्दसि (24.73) में यह निर्दिष्ट है कि वैदिक प्रयोग के विषय में प्राप्त शप् का लुक् कहीं होता है, कहीं नहीं भी होता है। विधेर्विधानं बहुधा समीक्ष्य चतुर्विधं बाहुलकं जहां नियम प्राप्त है वहां नहीं होता, जहां अप्राप्त है वहां क्वचित् प्रवृत्तिः क्वचिदप्रवृत्तिः कवचिद् विभाषा क्वचिदन्यदेव | वदन्ति ॥ हो जाता है। जैसे अशयत् — यह 'शीङ् स्वप्ने' धातु का अर्थात् कहीं पर विधि न प्राप्त होते हुए भी कार्य लड् लकार का रूप है। शीड़ धातु अदादिगणीय है। यहां होना, कहीं पर विधि होने पर भी कार्य न होना, कहीं लोप प्राप्त था, लेकिन नहीं हुआ। शी से परे ' शप्' विकल्प से होना तथा कहीं अकारण ही हो जाना यह चार मानकर शी को गुणादेश तथा अयादेश होकर 'अशयत्' स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च मई, 2002 प्रकार का बहुल देखने में आता है। आचार्य पाणिनि ने अनेक बार बहुल प्रयोगों का निर्देश किया है— Jain Education International - For Private & Personal Use Only अनेकांत विशेष • 117 www.jainelibrary.org
SR No.014015
Book TitleJain Bharti 3 4 5 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhu Patwa, Bacchraj Duggad
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year2002
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size33 MB
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