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________________ अनेकांठ : चिंतन का चरमचक्षु STATNIST dिar VERSTANDISEART APE E THENDE किसी भी भौतिक पदार्थ को देखने-पसी के लिए जिस प्रकार आँख अनिवार्य साधन है, उसी प्रकार किसी भी वस्तु के ऐसे स्वभाव या उसके गुण-दोषों को, बो आँखों से नहीं देखे जा सकते, उन्हें जानने । और मानने के लिए अमेकांत आवश्यक और अनिवार्य साधन है। आगहों के सघन अंधकार में प्रवेश करके वास्तविकता को हृदयंगम करने के लिए यह एकमात्र प्रकाश-किरणहान विचारकों ने अनेकांत को अंधकार में हाथ पर रखे दीपक के समान सहायक मानकर उसे नमन किया है। बू प्रायः प्रतिदिन हमारे उपयोग में आने वाला अभाव की अनिवार्यता ने हमारे ज्ञान को सीमित तो किया ही छोटा-सा फल है। हम बचपन से जानते- है, पराधीन भी बना दिया है। ऐसी दशा में वस्तु को सही पहचानते हैं। इतना परिचित है वह हमारे लिए कि सामने रूप में देखने-जानने का एक ही उपाय है कि जब हम वस्तु आते ही उसके रूप-रस और आकार-प्रकार सब हमारे ज्ञान का कोई भी रूप अपने सामने देखें और जानें, तब बिना में एक साथ आ गए लगते हैं, परंतु ऐसा होता नहीं। हमारे किसी हठाग्रह के, अपने जानने के अधूरेपन को स्वीकार करें उस ज्ञान में जानना बहुत कम होता है। अधिकांश तो और जो जितना हमसे अनजाना रह गया है, उसका निषेध अनुमान और धारणा की सहायता से ही हम उसे जान रहे न करें। पदार्थ में ऐसे अनंत गुण-धर्मों की स्वीकृति के लिए होते हैं। धारणा एक काल में अनेक बातों की हो सकती है. अवकाश छोड़ दें जिनके होने की पूरी संभावना प्रत्येक पदार्थ परंतु जानना तो एक काल में पदार्थ के एक ही गुण का होता में है। है। वह भी पूरा नहीं होता, आधा-अधूरा ही होता है। जिस किसी एक छोर से हम वस्तु को जानते हैं, उसे वास्तविकता यह है कि जब हम नीबू के रूप को जान जानने का वही एकमात्र छोर तो नहीं है। उसे जानने के तो रहे होते हैं, तब हम उसके रस का ज्ञान नहीं कर रहे होते हैं। ऐसे अनेक छोर है। अनेक दृष्टिकोण हैं या हो सकते हैं, रूप देखकर जब हम उस फल के नीब होने का निर्णय करते अनेक दृष्टियां हैं या हो सकती हैं। छोर कहें या 'अंत' कहें हैं तब उसका रस, उसका खट्टापन और उसकी सुगंध हमारे एक ही बात है। इसलिए जो विद्या ज्ञेय पदार्थ के एक छोर अनुभव, अनुमान और धारणा में से व्यक्त होकर हमें नीबू के को जानते समय उसके दूसरे किसी छोर का निषेध नहीं रस, गंध और स्पर्श का भी बोध करा देती है। इसका अर्थ करती, उसके हर संभावित छोर को या अनेक अंतों को एक हुआ कि जब हम नीबू का रूप जान रहे होते हैं, तब हम साथ अवकाश देती है, उसी समर्थ विद्या को या उसी पवित्र उसका रस, गंध और स्पर्श नहीं जान रहे होते। इतना-भर अनाग्रही दृष्टि को, जैनाचार्यों ने 'अनेकांत' कहा है। नहीं, हमारे ज्ञान की सीमा तो इतनी पराधीन है कि रूप में भी अनेकांत जब हम उसका पूर्वी भाग जान रहे होते हैं, तब उसका किसी भी भौतिक पदार्थ को देखने-परखने के लिए पश्चिमी भाग कहां जान रहे होते हैं। यही सीमा दसों दिशाओं जिस प्रकार आंख अनिवार्य साधन है, उसी प्रकार किसी भी से हमारे जानने को अल्प और एकपक्षीय बना देती है। पदार्थ वस्तु के ऐसे स्वभाव या उसके गुण-दोषों को, जो आंखों से को पूरा जानने के लिए हमें उसे अनंत दृष्टियों से और अनंत । नहीं देखे जा सकते, उन्हें जानने और मानने के लिए दृष्टिकोणों से जानने-देखने की आवश्यकता होगी। अनेकांत आवश्यक और अनिवार्य साधन है। आग्रहों के वर्तमान में हमारी इंद्रियों की सामर्थ्य, प्रकाश, चश्मा सघन अंधकार में प्रवेश करके वास्तविकता को हृदयंगम आदि साधक कारणों के सद्भाव तथा इनके बाधक कारणों के करने के लिए वह एकमात्र प्रकाश-किरण है। जैन विचारकों 1 11111111111111111111111 स्वर्ण जयंती वर्षu ni जैन भारती मार्च-मई, 2002 अनेकांत विशेष.101 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014015
Book TitleJain Bharti 3 4 5 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhu Patwa, Bacchraj Duggad
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year2002
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size33 MB
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