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________________ इस समन्वय का आधार प्रज्ञा है। धार्मिक जीवन में श्रद्धा का प्रहरी प्रज्ञा या बुद्धि को बनाया जाना चाहिए। इंद्रभूति गौतम ने जो कभी कहा था, आज भी प्रासंगिक है— पन्ना समिक्खए धम्मं तत्तं तत्तविणिच्छ्रयं धार्मिक आचार के नियमों की समीक्षा प्रज्ञा से करनी चाहिए। जैन धर्म में धार्मिक सहिष्णुता केवल रागात्मकता पर नहीं, बल्कि विचार पर आधारित है जब वस्तुतत्त्व अनंत धर्मात्मक है तो उस संबंध में हमारा ज्ञान एवं कथन दोनों सापेक्ष होंगे। मानव की बुद्धि अल्प है, अतः वह संपूर्ण सत्य को नहीं, उसके एक अंश को जान सकती है। यहां तो हमारे एवं हमारे विरोधी के विश्वास और कथन दो भिन्न भिन्न परिप्रेक्ष्यों में एक साथ सत्य हो सकते हैं। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने सन्मति तर्क में कहा है— णाययवयणा ज्जसच्चा सव्वन्या पर वियातणो मोहा ते उण शा दिट्ठसमओ विभयह सच्चे व अलिये वा । ( सन्मति - तर्क, 1 / 28 ) इसीलिए यशोविजय कहते हैं कि सच्चा अनेकांतवादी किसी दर्शन से द्वेष नहीं करता। वह संपूर्ण दर्शनों को इस प्रकार वात्सल्य दृष्टि से देखता है जैसे पिता अपने पुत्र कोयस्य सर्वत्र समता नयेषु वनयेष्तिव । तस्यानेकांतवादस्य क्व न्यूनाधिकशेमुषी ।। (अध्यात्मोपनिषद्, 61) आचार्य अमितगति का मंगलमंत्र भी अनेकांत भावना का जीवन रूप है सत्वेषु मैत्री गुणीषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवे सुकृपापरूपं । माध्यस्थ भावं विपरीत वृतौ सदा ममात्माविदधातु देव || अनेकांत निर्गुण भी होता है, सगुण भी जीवन विचार, वाणी एवं व्यवहार की समग्रता है। विचार व्यवहार को प्रभावित करता है। इसलिए सम्यक् दृष्टि एवं सम्यक्ज्ञान दोनों पर जोर है। लेकिन सत्य क्या है, असत्य क्या है, यह कोई नहीं जानता क्योंकि सत्य संश्लिष्ट होता है। ज्ञान का अर्थ है ज्ञाता एवं ज्ञेय का संबंध अतः ज्ञान स्वयं । सापेक्ष है। इसमें न संशयवाद है न आत्मवाद। इसमें तो पूर्णता एवं समग्रता के साथ यथार्थवाद है। महावीर गौतम के - बीच वार्ता में भगवान महावीर कहते हैं कि द्रव्य की दृष्टि से आत्मा अशाश्वत है, किंतु पर्याय की दृष्टि से शाश्वत । अनेक वार्ताएं हैं, लेकिन इसका ऐकांतिक उत्तर संभव नहीं हो सकता। असल में दो गुणात्मक तर्कशास्त्र जीवन की संश्लिष्टताओं का समाधान करने में सक्षम नहीं होते? अब 100 • अनेकांत विशेष Jain Education International तो बहुआयामी तर्कशास्त्र की जरूरत है। वैचारिक जीवन में अहिंसा का सिद्धांत ही अनेकांतवाद है। हमें किसी एक आयाम को संपूर्णता प्रदान करना गलत है। जैन सप्तभंगी न तो द्वि-मूल्यात्मक है, न त्रिमूल्यात्मक ही इसे बहुमूल्यात्मक कहा जा सकता है। अभी तक आधुनिक तर्कशास्त्र में ऐसा आदर्श सिद्धांत विकसित नहीं हुआ है जो कथन की सप्त- मूल्यात्मकता को प्रकाशित करे । सप्तभंगी का प्रत्येक भंग वस्तु स्वरूप के संबंध में नवीन तथ्यों का प्रकाशन करता है। इसलिए उसके प्रत्येक भंग का अपना स्वतंत्र स्थान एवं मूल्य है। महावीर का अनेकांतवाद निषेधात्मक नहीं, विधायक दृष्टिकोण है। बुद्ध ने तत्त्वमीमांसा के प्रश्नों पर मौनावलंबन किया, किंतु महावीर ने सभी प्रश्नों को सार्थक एवं व्याकरणीय बताया अनेकांतवाद संजय का संशयवाद नहीं है यह किसी प्रकार का विकल्पों का व्यायाम नहीं इसमें तो सत्य का संकेत है। एक प्रश्न है कि अनेकांत 'क्या एकांत नहीं है ? क्या यह बात का बतंगड़ है?' हम कह सकते हैं कि कुतर्क है। लेकिन अनेकांत का भी एक एकांतवाद कहा जा सकता है। यदि अनेकांत निरपेक्ष है तो यह सार्वभौम नहीं है, किंतु यदि एकांत है तो भी यह सार्वभौम नहीं है। इस पर दो द्विविधाओं के मध्यांतर अनेकांतवाद झूलता है। असल में जैन तर्कशास्त्र अमूर्त है, केवल बौद्धिकतावाद पर आश्रित नहीं इसकी जड़ यथार्थता में और सप्तभंगों में कोई भी भंग काल्पनिक नहीं बल्कि सही एवं यथार्थ हैं। अनेकांतवाद एकांती नहीं। यह अनैकांतिक एवं ऐकांतिक दोनों है। यह एकांत दृष्टि कहलाएगा क्योंकि यह एक अलग स्वतंत्र दृष्टिकोण है। यह अनेकांत है क्योंकि यह सभी आयामों का योगफल है। मनुष्य की शक्ति सीमित है, किंतु वस्तु का स्वरूप असीम है उसमें अनंत प्रदेश एवं अनंत धर्म होते हैं। किसी वस्तु के विषय में भिन्न-भिन्न विचार हो सकते हैं और वे परस्पर विरोधी भी हो सकते हैं परंतु उनमें एक सामंजस्य है, अविरोधी तत्त्व है जो उसे भलीभांति देख सकता है। यह तत्त्व दर्शन है। यह सापेक्षतावाद आज के वैज्ञानिक भी स्वीकार करते हैं। विरोध के स्वीकार और विरोध के परिहार का यह अनूठा सिद्धांत है। जैन परंपरा की विश्व संस्कृति को एक अनुपम देन है। इसके लिए अंतर में सभी के प्रति मैत्रीभाव आवश्यक है। किसी के प्रति वैरभाव न हो। जीओ एवं जीने दो सबके प्रति स्नेह एवं आदर यही तो सगुण । - अनेकांत है। स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती For Private & Personal Use Only मार्च मई, 2002 www.jainelibrary.org
SR No.014015
Book TitleJain Bharti 3 4 5 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhu Patwa, Bacchraj Duggad
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year2002
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size33 MB
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