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________________ सत्य और अहिंसा : गांधी जी की दृष्टि में हिंसा के बाह्य और आभ्यन्तर दो स्तर हैं । रागद्वेष, लोभ, मोह मात्सर्य आदि अन्तःशत्रु से प्रेरित होकर जीवहिंसा करना सच्ची हिंसा है | शरीरच्छेद आदि उसका बाह्य प्रकाश है । महावीर के द्वारा प्रतिष्ठित अहिंसा में जैनदार्शनिकों का प्रबल पक्षपात उनके शास्त्रों के अध्ययन के आधार पर सिद्ध होता है । किन्तु उन्होंने भी द्रव्यहिंसा और भावहिंसा के रूप में हिंसा के दो भेद वर्णित किये हैं । क्रोधादि से प्रेरणाशून्य हिंसा द्रव्य हिंसा है - यह वास्तविक हिसा नहीं है । इस दिशा में देवागतकीटादि की हिंसा अपरिहार्य है । संयतात्मा साधु भी इससे निवृत्त जीवन व्यतीत करने में असमर्थ हैं । अतः इस हिंसा की प्रतिषेधात्मिका अहिंसा की प्रतिष्ठा किसी ने भी नहीं की है । कलुषित चित्त रागद्वेषादि से प्रेरित हिंसा ही हिंसा है जो अधर्म जनक एवं प्रतिषिद्ध भी है । यह मानवहिंसा है। मीमांसकों ने भी वैदिक हिंसा को रागद्वेषादि की भित्ति पर प्रतिष्ठित हिंसा न होने से उसको नहीं माना है । वह एक तरह बलिदान, आत्मविसर्जन, सहिष्णुता है । बलिदान भी हिंसा ही है किन्तु वह परिहार्य नहीं, दोषावह नहीं । तिदेव की कथा में जहाँ गोमेध की चर्चा है वह सभी को ज्ञात है । महाभारत के उस अध्याय को देखने से यह सिद्ध है कि गौओं ने स्वयं अनासक्त रूप में लोकसमृद्धि के लिए अपने को बलिदान किया था। वे अनासक्तरूप में अपना बलिदान करती थी । इसके उपसंहार से यह स्पष्ट है, एक गौ जब अपने बच्चे के शब्द से आसक्त ममता के भाव को अभीप्सित रूप में अभिव्यक्त करती है, उसी समय यह यज्ञ समाप्त हो जाता है । बलिदान में अनासक्ति है, अभेद है, लोकहित कामना एवं सर्वे भवन्तु सुखिन: की भावना है। यज्ञ में बलि होता है हिंसा नहीं । यज्ञादि में पशु हिंसा रागद्वेषादि से प्रेरित होकर नहीं होती है, अतः भावहिंसा के अन्तर्गत नहीं है । धर्मयुद्ध में हिंसा को जैनियों ने भी द्रव्यहिंसा के रूप में माना है । सत्य एव भाव की विशुद्धि रहने पर द्रव्यहिंसा होगी, और वह हेय नहीं है । कालिदास ने भी स्पष्ट शब्दों में अहिंसा का विश्लेषण करते हुए लिखा है आर्तत्राणाय वः शस्त्रं न प्रहतु मनागसि । निरापराधप्राणियों के सताने के शस्त्र ग्रहण निषिद्ध है त्राण के लिए नहीं, 'सुख-दुःखादि भोगने की उच्चाकांक्षा से प्रेरित युद्ध ही धर्मयुद्ध है । वैयक्तिक ६७ भारतीय परम्परा, ज्ञान की भूमि पर जाति का महत्त्व नहीं देती है भेद का ज्ञान शिला पर विश्वस्त होने के उदाहरण उपलब्ध हैं । वैश्य और शूद्र इनमें परिसंवाद - ३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014014
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size21 MB
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