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________________ भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं निरूपण करना कठिन हो जाता है। साधारण जनता के सामने ऊँचे आध्यात्मिक तत्त्वों के प्रचार करने में अनेक विपत्तियाँ हैं। उच्च आध्यात्मिक तत्त्वों की अवगति के लिए उचित अधिकारी अपरिहार्य है। यदि इन तत्त्वों को विवृतरूप में बोध कर लिया जाय तो वे ही तत्त्व महान् अर्थ के साधन होंगे। महात्मागांधी ने जिस राष्ट्र के स्वरूप की कल्पना की थी वह शुद्ध भारतीय था, उसमें सैन्य, रक्षक, पुरुष और बाहुबल के प्रयोग का अवकाश न था। महाभारत के अध्ययन के आधार पर प्राचीनतम सत्ययुग इसे कहा जा सकता है। जहाँ शासन की व्यवस्था न थी। सब धर्मपरायण क्रोध, लोभ, मोह, मात्सर्ग शून्य यदृच्छालब्ध अन्न वस्त्र से सन्तुष्ट, अनासक्त थे। यह सत्ययुग अनासक्त सत्य पर प्रतिष्ठित था, और अधर्म के प्रादुर्भाव के साथ अंवसन्न हुआ। मात्स्य-न्याय के अनुसार राजनिर्वाचन और राजधर्म के निर्माण की आवश्यकता हुई। यह मानवमात्र की अनुभूति है कि वह समय अब नहीं आ सकता। सभी गांधी, शंकर या बुद्ध नहीं हो सकते हैं। अब यह स्वीकार करना होगा कि यह समय पुनः नहीं आएगा। मानव चित्त काम, क्रोध, लोभ आदि निकृष्ट वृत्तियों से प्रभावित रहेगा एवं अपने स्व की सार्वभौम प्रतिष्ठा के बिना स्वार्थसिद्धि में तत्पर दूसरों को ठगते रहेंगे। जब तक हिंसा, छल, कपट, मिथ्या का आश्यण करने में कुण्ठित न होंगे तब तक दुर्बल मनुष्यों के हितसाधन के लिए एवं दुराचारों को अवरुद्ध करने के लिए दण्ड की अनिवार्यता बनी रहेगी । अहिंसा के यथार्थ स्वरूप के सम्बन्ध में पूर्ण ज्ञान का अभाव ही इन विपत्तियों का साधन है। आध्यात्मिक या दैवी शक्ति के प्रभाव से आततायी के मन में यदि सत्त्वगुणों के उद्रेक पैदा हो जाय तो प्रेम और अहिंसा की सत्य मूलक क्रान्ति प्रतिष्ठित हो सकती है। चैतन्य देव ने आततायी को प्रेम से अहिंसा के आधार पर वशीभूत अवश्य किया, किन्तु यह भी एक व्यक्ति सापेक्ष था। श्रीकृष्ण, बुद्ध, महावीर, ईशु आदि ने आध्यात्मिकता की मूल भित्ति पर जीवन को प्रतिष्ठित करने के लिए योग प्रभाव से पाशविक शक्ति का प्रतिरोध किया। वे चित्त को प्रेम रस से परिप्लुप्त ही कर सकें, इसमें इतिहास साक्ष वहन कर रहा है। महात्मागांधी ने राजनीतिक्षेत्र में बाह्य और आभ्यन्तर सर्वतोमुखी अहिंसा की स्थापना करने का भरणपर्यन्त प्रयत्न किया, किन्तु सफलता का अनुभव सभी व्यक्ति कर रहे हैं। परिसंवाद.-३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014014
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size21 MB
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