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________________ सत्य और अहिंसा : गांधी की दृष्टि में आचार्य डॉ० महाप्रभुलाल गोस्वामी अध्यात्मिक भूमि पर बहिर्मुखी चिन्ता एवं लौकिक कर्मकलापों का अनुष्ठान पुरुषोत्तम की भूमिका है। स्वाध्याय की सबलभित्ति पर व्यवहार और प्रवचन भारतीय संस्कृति है। आगम, स्वाध्याय, प्रवचन और व्यवहार ये जीवन के चार चरण हैं। अगमकाल जीवन का उषाकाल है। जहाँ प्रभाकर की दृष्टि से अध्यापनविधि प्रयुक्त गुरूपनिषद् से ज्ञान एवं आचार की शिक्षा मिलती है। जीवन के चार काल में यह अग्रज है, अग्रज का अवमान अनुज की क्रोध सृष्टि का साधन होता है । आगम के बिना स्वाध्याय आदि की स्थिति का प्रश्न ही नहीं रहता है । आत्मशून्य आधिभौतिक स्थूल तत्त्व के अनुसार चिन्ता धारा एवं कर्तव्य निर्धारण व्यवहार और प्रवचन को छिन्न-भिन्न कर देता है। ऋषि सेवित भारत वसुन्धरा की विमल प्रभा ने दिदिगन्त को प्रोद्भासित एवं कर्तव्य के मार्ग का निर्देश किया था। जीवन के उषाकाल में विहङ्गकाकली के साथ गुरुकुल के बालकों के कोमल कण्ठ से निःसृत गीत नवीन जीवन संचार के साथ कर्तव्य की शिक्षा देती थी। किन्तु, आज निदाघ सन्तप्ता स्रोतस्वती के समान भारती का अजस्र ज्ञान अस्तोन्मुख सूर्य की म्लान रेखा के साथ अमाकी निशा के आगमन की सूचना दे रही है। आज जीवन का अन्तिम चरण विच्छेदोन्मुख शरीर से सम्बन्ध रखता हुआ उसकी स्थिरता का नाटक कर रहा है । ज्ञान और विज्ञान के बाह्य सम्पद्, भोग, विलास, सदाचार, मन को चंचल एवं पथभ्रष्ट कर रहे हैं। हं हो ? पाश्चात्य शिक्षा के साथ उसका आदर्श भी गृहीत होती तो बाह्य अनुष्ठान की चकाचौंध ओढ़नी से आछन्न उभयपथ परिभ्रष्ट जीवन व्यतीत करने की अनिवार्यता न रहती। आज के उपदेष्टा भूतानुग्रह के आधार पर आत्मानुग्रह में आसक्त न होते। किसी भी उपदेश का मूलाधार आचार होना चाहिए। आचारसम्पन्न व्यक्ति हो अपनी प्रज्ञा से कर्तव्य की दीक्षा दे सकता है। ज्ञान और आचार सर्वथा अन्यो परिसंबाद-३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014014
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size21 MB
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