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________________ गोष्ठी का संक्षिप्त विवरण ३२५ ओर जाना आवश्यक नहीं है इसी प्रकार दैवी धर्म भी होना आवश्यक नहीं है । यदि मानव कल्याण ही दर्शन का उद्देश्य है तो इसमें अभ्युदय, निःश्रेयस मोक्ष तथा काम सब ही मानवीय कल्याण के विषय हैं और इनका विश्लेषण दर्शन के क्षेत्र में आना चाहिए। डा. रामशंकर भट्टाचार्य ( काशी) ने कहा- भारतीयदर्शन मात्र निवृत्तिपरक नहीं, लोकोपकारपरक भी है इसीलिए दर्शनों से लौकिक विद्याओं का विकास हुआ। महानदार्शनिक जनक ने भी वाणिज्य नियम बताये हैं। चाणक्य कृषि, गोरक्षावाणिज्य को वार्ताशास्त्र में रखकर निःश्रेयसपरक विधान बनाते हैं। . डा. भट्टाचार्य के वक्तव्य पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए प्रो. रमाकान्त त्रिपाठी ने कहा-निवृत्तिपरक दर्शन में भी मुमुक्षु जिस जीवन प्रणाली को स्वीकार करता है। उससे स्वभावतः लोककल्याण होता है। अत: मोक्षोन्मुख प्रयत्न लोककल्याणकारी है। प्रो. बदरीनाथशुक्ल (सं० सं० वि० वि०) ने कहा--भारतीयदर्शन वर्तमान में दार्शनिक स्वरूप के विवेचन से हट गया है पाश्चात्यदर्शन के विद्वान् कृपया यह बताये कि हमारे दर्शन की त्रुटियाँ.क्या हैं। महान दार्शनिक गंगेशोपध्याय ने मानव कल्याण के लिए दुःख निमग्न मनुष्य के उद्धार के लिए आन्विक्षिकी का उपदेश करने की बात कही है। संसार में सुखी रहना हर एक चाहता है। सबके लिए श्रेयस एवं प्रेयस की सुविधायें उपलब्ध हो, यह दर्शन का क्यों न उद्देश्य माना जाय । कहा जाता है कि भारतीयदर्शन में पुनर्जन्म, ईश्वर आदि के संप्रत्यय' इसके विकास को पंगु कर देते हैं । पाश्चात्य विचारधारा के भारतीय विचारकों के साथ बैठ कर इन संप्रत्ययों पर सोचना चाहिए। इस लक्ष्य का अधिगम यदि आज तक के चिंतन से नहीं हो सका तो कल से कैसे विचार किया जाय कि यह लक्ष्य प्राप्त हो सके। प्रो. डा. देवराज ( का० हि. वि. वि. ) ने कहा नवीन दर्शन मात्र नवीनता के लिये न स्वीकार किया जाय, प्रत्युत आवश्यकता एव परिस्थितियों के कारण नये दर्शन बनते हैं। वर्तमान युग में विज्ञान की प्रगति ने कुछ ऐसा विश्वास पैदा कर दिया है कि हम समझने लगे हैं कि जो पहले नहीं था वह भी किया जा सकता है। विज्ञान ने ईश्वर में धर्म ग्रन्थों की अनादिता में, संदेह पैदा किया है अतः हमारा दायित्व बढ़ा है। प्राचीन विचारक कर्मफल, दैवविधान, आदि समझ कर लोगों परिसंवाद-३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014014
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size21 MB
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