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________________ भारतीय चिन्तन परम्परा में नये दर्शन की सम्भावनाएं ३११ यह काल का प्रभाव ही मानना पड़ेगा, जैसा कि श्रीमद्भागत के माहात्म्य में कहा है, "एकाकारं कलिं दृष्ट्वा सारवत्सारनीरसम्, यहाँ कलि का विशेषण है एकाकार, उसमें हेतुभूत दूसरा विशेषण है सारवत्सारनीरसम" जिसका अर्थ हैसारवतां सारोऽपि नीरसो यस्मात । सरवान् पदार्थों के सार नीरस हो गये जिससे ऐसा कलि सबको एकाकार अर्थात् एक रूप बना दिया है। सारांश सहित होकर सब समान हो चुके हैं। पर इस प्रकार की आवश्यकता प्रतीत हो रही है। यदि यह कहा जाय कि अच्छा पाश्चात्य वैदेशिकदर्शन जो प्रायः विज्ञान की कसौटी पर भी कसा जा रहा है. उसी से भारतीय सामाजिक समस्या का समाधान हो जायगा, तो यह सर्वथा असम्भव है, क्योंकि वह दर्शन तर्क एवं बुद्धि को प्रधान सहयोगी मानकर चल रहा है। तर्क प्रतिष्ठित नहीं हो सकता, एक बुद्धिमान् के तर्क को उससे विशिष्ट बुद्धिमान् खण्डित कर देता है। दूसरा सहयोगी बुद्धि भी सभी की प्रायः भिन्न-भिन्न एवं सीमित होती है, वह सत्त्व वस्तु की परीक्षा में पूर्ण समर्थ नहीं हो सकती, क्योंकि घट पट आदि के रूप को देखने में बुद्धि स्वतन्त्र नहीं है। अपितु नेत्र के परतन्त्र है, नेत्र की ही सहायता से वह रूप निश्चय कर सकेगी। ऐसे ही गन्ध के ग्रहण में वह घ्राणेन्द्रिय के परतन्त्र है, शब्द के ग्रहण में वह श्रोत्रेन्द्रिय के परतन्त्र है, अस्तु इसी प्रकार अलौकिक परमसत्य आत्मा या परमात्मा धर्म के निर्णय में भी उसे किसी अन्य सहयोगी की अपेक्षा करनी पड़ेगी, जिसको वैदिकदर्शन वेदवाक्य के रूप में तथा अन्य दर्शन अपने-अपने आदिम आचार्य वचन के रूप में कहेंगे। ऐसी आधारशिला पाश्चात्यदर्शन को उपलब्ध नहीं है। अतः ऐहलौकिक जीवन को ही सुखी समृद्ध बनाने में प्रयत्नशील पाश्चात्यदर्शन भारत की उक्त समस्या का समाधान नहीं कर सकता। ऐसी स्थिति में प्राचीन दर्शनों की शरण लेना भी सम्भव नहीं है। क्योंकि वे परस्पर एक दूसरे से आहत-प्रत्याहत होकर मूच्छित से हो रहे हैं। तथा ये विभिन्न काल की विभिन्न परिस्थितियों में निर्मित किये गये, आज की स्थिति उनके समक्ष नहीं थी। आज तो मानवता, दानवता का रूप ले बैठी है, अर्थपरायणता ही प्रधान लक्ष्य हो रही है। इस कारण से भाई-भाई में, पिता-पुत्र में गुरु-शिष्य आदि में भी सद्व्यवहार समाप्तप्राय है, समाज विशृङ्खल हो रहा है। इसके सुधार के लिये प्राचीन दर्शनों के पीछे कहे हुए कतिपय आदर्श वचनों का पुनरुद्धार करना होगा, अर्थात् स्वयं व्यक्तिगत आचरण में उन आदर्शों को लेते हुए कुटुम्ब, ग्राम, मण्डल एवं जनपद तक उसके प्रायोगिक रूप के लिये सतत प्रयत्नशील होना होगा। "वसुधैव परिसंवाद-३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014014
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size21 MB
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