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भारतीय चिंतन परंपरा में नये दर्शनों का दिशा-निर्देश
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दी गई हैं, इस स्थगन का कारण लोकमानस (लोकव्यवहार ) ही है 'यद्यपि शुद्ध लोकविरुद्धं नाचरणीयम् नाचरणीयम्' इस सुक्ति से नाचरणीयम्' पद की द्विरावृत्ति लोकव्यवहार के विरुद्ध आचरण का दृढ़ता से निषेध करती है।
आज दुनियां सिमट गई है। विभिन्न दृष्टियों और व्यवहारों में टकराव हो रहा है। यह निश्चित है कि इस टकारव में उत्कृष्ट तत्त्व ही बच रहेंगे । दुनियां भारतीय तत्त्वज्ञान को आशाभरी दृष्टि से देखती है किन्तु साथ ही भारतीय जीवन की विसंगतियों से उसे आश्चर्य भो होता है। यह कहा जा सकता है कि अपने ऐहलौकिक जीवन में समाज के प्रति और राष्ट्र के प्रति पाश्चात्य संस्कृति अधिक ईमानदार है। अजगर करे न चाकरी, अपना मतलब गाँठने के लिये गधे को बाप बनाना, समरथ को नहिं दोष गुसाईं, स्वकार्य साधयेद् धीमान स्वार्थभ्रंशो हि मूर्खता, आत्मार्थं पृथिवीं त्यजेत-जैसे वाक्य स्वस्थ सामाजिक विकास में सहायक नहीं हो सकते। पारलौकिक विविवाकों की परीक्षा शास्त्रीय पद्धति से ही की जाय, यह तो ठीक है किन्तु ऐहलौकिक दृष्टि से सम्बद्ध प्रत्येक छन्दोबद्ध उक्ति को विधि वाक्य नहीं माना जाना चाहिये। इसके लिये तो हमें -'पुराणमित्येव न साधु सर्वं न चापि सर्व नवमित्यवद्यम् । सन्तः परीक्ष्यान्यतरद् भजन्ते' वाली कालिदास की इस उक्ति का अनुसरण करना ही चाहिये । आज की दुनियां को भारतीय संस्कृति, दर्शन और धर्म के उदात्ततत्वों का अवदान दे पाने की स्थिति में अपने को रखने के लिये यह आवश्यक है कि पूरे भारतीय तत्त्वज्ञान की पृष्ठभूमि में ऐहलौकिक दृष्टि से भी व्यक्तिगत और समाजगत आचारों की परीक्षा की जाय ।
भारत में दर्शन को बुद्धि का विलास मात्र कभी नहीं माना गया है। इतना अवश्य है कि इसमें पारलौकिकदृष्टि से व्यक्तिगत उन्नति पर अधिक जोर दिया गया है । 'कामये दुःखतप्तानां प्राणिनामातिनाशनम्' जैसे वाक्यों में प्राणिमात्र के दुःख से निवृत्ति की कामना की गई है, किंतु इसमें भी पारलौकिक दृष्टि ही काम कर रहो है । सत्ययुग में होने वाले ऐहलौकिक विकास को हमने भगवान् काल के सुपुर्द कर दिया है। इसके विपरीत 'स्वात्मैव देवता प्रोक्ता ललिता विश्वविग्रहा' सरीखे आगमिक एवं तान्त्रिक दर्शन के प्रतिपादक वाक्यों के सहारे अपने में विश्वाहन्ता का विकास कर अरविन्द जैसे महायोगी इसी धरती पर दिव्यमानवता के अवतार की बात करते हैं और महामनीषी श्रद्धेयचरण श्री गोपीनाथकविराज महोदय अखण्ड महायोग के माध्यम से इस स्थिति को लाना चाहते हैं।
परिसंवाद-३
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