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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भवनाएं
इस वैषम्य के मूल कारणों की खोज करना और भारत की आज की परिस्थिति में उससे होने वाले हानि-लाभ का लेखा-जोखा प्रस्तुत करना, आज के चिन्तक का आवश्यक कर्तव्य हो जाता है। इस सम्बन्ध में हम यथामति अपने कुछ विचार यहाँ प्रस्तुत करना चाहते हैं।
___अपने विचारों को प्रस्तुत करने के लिये हम जागतिक ज्ञान को आध्यात्मिक और आधिभौतिक दृष्टियों में न बाँटकर ऐहलौकिक और पारलोकिक दृष्टियों में बाँटना चाहते हैं।
___ अभ्युदय और निःश्रेयस ( मोक्ष की प्राप्ति प्रायः प्रत्येक भारतीय दर्शन का लक्ष्य है। मनुष्य जीवन्मुक्त भले ही हो जाय, किन्तु मोक्ष की अभिव्यक्ति इस शरीर और दुनियां का मोह छूट जाने के बाद ही होती है, अभ्युदय ऐहलौकिक भी है और पारलौकिक भी। स्वर्ग आदि पारलौकिक अभ्युदयों की प्राप्ति भी इस शरीर के छूट जाने के बाद ही होगी। भारतीय दर्शनों में ऐहलौकिक अभ्युदय को हेय दृष्टि से देखा जाता है और पारलौकिक अभ्युदय को उपादेय। फलतः इनमें ऐहलौकिकक अभ्युदय सम्बन्धी विचारों को बहुत कम स्थान मिला है। भारतीय वाङ्मय की एक शाखा आगमशास्त्र और तन्त्रशास्त्र ने एक ही जन्म में भोग और मोक्ष, अभ्युदय और निःश्रेयस को प्राप्त कराने की बात की, किंतु इसमें भी व्यक्तिगत भावना ही प्रधान रही है। कहा जा सकता है कि भारतीय दर्शन और आध्यात्मिकता में वैयक्तिक उन्नति का तो चूड़ान्त उत्कर्ष हुआ है, किन्तु साथ ही सामूहिक उन्नति का पक्ष अत्यन्त दुर्बल है। इसी तरह से इसमें ऐहलौकिक दृष्टि का अपेक्षा पारलौकिक दृष्टि का प्राबल्य हो गया। साधारण भारतीय की यह दृढ़ मूल धारणा है कि संसार अवनति की ओर तेजी से बढ़ रहा है। इसको रोका नहीं जा जा सकता। कर्मवाद और भाग्यवाद इसी ओर ढकेलते हैं। उनका सारा पुरुषार्थ कलिकाल की अर्गला से अवरुद्ध है।
पारलौकिक दृष्टि के विषय में हमारे जैसे सामान्य चिंतक कुछ कह सकने के अधिकारी नहीं हैं। महात्मा बुद्ध ने भी कुछ प्रश्नों को अव्याकरणीय माना था। ऐहलौकिक दृष्टि सन्दर्भ में हम कुछ विचार कर सकते हैं और यह हुआ भी है। धर्मशास्त्रकारों ने कुछ विषयों में आगमशास्त्र और तन्त्रशास्त्र को श्रुति स्मृति के समकक्ष मान्यता दी है। कहा जा सकता है कि धर्मशास्त्रों में आचार ( लोक व्यवहार) को बहुत महत्त्व दिया गया है। कलिवयंप्रकरण को दृष्टान्त के रूप में उपस्थित किया जा सकता है, जिसमें श्रुतियों और स्मृतियों की अनेक मान्यताएँ स्थगित कर परिसंवाद-३
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