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________________ भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं सदा से स्वीकारता आ रहा है । इसलिये विद्या अरण्यों में और ऋषियों के आश्रमों में चलती थी । वहाँ राजा का भी दबाव नहीं पड़ता था । राजा भी वहाँ विनीत भाव से जाता था तथा जिज्ञासा को शान्त करता था। आज का शासन हमारे विद्या के क्षेत्र में air अड़ाता है और वह जैसा चाहता वेसा करने के लिए बाध्य करता है । यह भौतिकवादी दृष्टि है. यह स्वातन्त्र्यपूर्वक विद्या आचरण नहीं है । इसलिये भौतिकवादिता की ओर उन्मुख होकर हम मार्क्सवादी प्रवृत्ति को पनपा रहे हैं । जब हम शासनतन्त्र से मुक्त रहेंगे तो आध्यात्मिकता का प्रसार होगा तथा तब आचार्य के आवरण का प्रभाव शिष्यों पर पड़ेगा, और रामराज्य की ओर जायेंगे । २३८ हमारे यहाँ धर्म की स्वतन्त्रता भी रहनी भी चाहिए, क्योंकि धर्मं मनुष्य का प्राणभूत तत्त्व है, वह चाहे आचरणमूलक हो या श्रद्धामूलक । उससे परोपकार, दया, प्राणियों में सद्भावना आदि की प्रवृत्ति होती है । इसलिए धर्म की स्वतन्त्रता भी हमारे यहाँ की मूल चीज है । हम मन्दिर जायें या यज्ञ करें तो उसके लिए अर्थ की आवश्यकता होती है। यह अर्थ अपने परम्परा से हमने उपार्जित किया है, अतएव हम उसके द्वारा मन्दिर में फूल माला चढ़ा सकते हैं या जो भी विधिविधान चाहे अनुष्ठित कर सकते हैं । इस पर शासन की परतन्त्रता ठीक नहीं लगती। क्योंकि इससे दान, दया, दाक्षिण्य के भावों का ह्रास होगा। मानव की किसी अभीप्सित वस्तु में प्रवृत्ति कम हो जायेगी, इसलिये हमारे यहाँ तीन प्रकार की स्वाधीनता कही गयी थी । लेकिन इन स्वातन्त्र्यों के साथ पारतन्त्र्य भी था । हम इतने स्वतन्त्र न हो जायँ की माता-पिता के बचनों का उल्लंघन करने लगे, आचार्य का अपमान करें । हमको अध्यात्मसुख के लिए कुछ परतन्त्रता भी अपेक्षित थी, वरना हमारा छात्र हमारे आदेशों का विरोध करेगा, पढ़ने से भागेगा, यह सर्वस्वातन्त्र्य हमारा विकास न करके ह्रास करेगा । इसलिए स्वातन्त्र्य कुछ पारतन्त्र्यों के साथ रहता है । वे पारतन्त्र्य हमारे शास्त्रों में वर्णित हैं तथा उनकी अधीनता स्वीकार करते हुए समग्र विश्वासात्मक भाव को प्राप्त करना हमारा उद्देश्य है । इसी प्रकार धर्मनिरपेक्षता की बात लीजिए । यह सेक्यूलर शब्द का अनुवाद माना गया है पर वास्तव में यह धर्म निरपेक्षता पहले पहल जब अनुवादित हुई तब यह अधार्मिक, धर्महीन, अर्थनीति पर अवलम्बित धर्मविहीन लौकिक राज्य, लोकायतराज्य आदि के रूप में थी। बाद में इसका रूप बदलते बदलते धर्मनिरपेक्षता के स्वरूप में आ गया । हमें इसको यदि कहना हो तो धर्म सापेक्ष पक्षपातविहीन राज्य परिसंवाद - ३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014014
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size21 MB
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