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________________ भारतीय चिन्तन में नये दर्शन २३७ महाभारत की एक कथा है कि दुर्योधन का कभी किसी गन्धर्व ने हरण कर लिया, तब युधिष्ठिर ने उसको छुड़ाने के लिए अपने भाइयों को कहा तथा स्वयं प्रयत्नशील हुए। इस पर जब उनके भाइयों ने कहा- ठीक ही हुआ । इस प्रकार से भी हमारा दुश्मन समाप्त हो जायेगा, इसलिए आप उसकी चिंता न करें। तब युधिष्ठिर ने कहा - यह उचित नहीं है । बैर हमारा आपस का है लेकिन जब विजातीय से बैर उपस्थित होगा तो हम एक सौ पाँच भाई साथ-साथ होंगे । यह साजात्यभाव है । लेकिन साथ ही साथ यह मानवीय दृष्टि भी है। दर्शन का काम साजात्य या धर्म से बढ़कर विश्वकल्याण की भावना का विकास करना है । यह सब भाव षड्दर्शनों के उद्भावना की आवश्यकता है । लेकिन यदि आधुनिक विचार पद्धति के परिप्रेक्ष्य में इसी मानवीय भावना को ध्यान में रखकर सबमें एकरूपता तथा समानता का नारा देने के लिए दर्शन की उद्भावना की बात हो तो आप उसे कह सकते हैं । हाँ यह सामान्यजनों के बीच अवश्य नया दर्शन होगा, लेकिन पण्डितों के बीच दर्शन की कसौटी पर यह खरा नहीं साबित हो सकेगा । जब उनसे दर्शन तथा धर्म के भारतीय स्वरूप पर प्रश्न किया गया तो उन्होंने कहा- हमारे यहाँ सर्वदर्शनसंग्रह में लोकायत, बौद्ध, जैन, षड्दर्शन, तन्त्र, रसेश्वर, धर्म तथा पाणिनीय दर्शनों की चर्चा है । ये सभी धर्म नहीं हो सकते। दर्शन का प्रत्यय साध्य, साधक एवं साधन से सत्य रूपी अर्थ के विवेचन में होता है और सत्य का विवेचन विभिन्न दर्शनों में उपलब्ध है । मीमांसा वैसे धर्म है लेकिन उसमें भी कर्म का दर्शन प्रस्थापित किया गया है। ज्ञान मीमांसा ही वेदान्त है और वह ही हिन्दू सर्वस्व है उसके द्वारा आत्मप्रत्यय का बोध कराया जाता है । इस आत्मप्रत्यय का बोध प्रमाणों के द्वारा होता है और इस प्रकार प्रमाण ही सत्य की प्रापकता में साधन हैं। इस प्रकार दर्शन यद्यपि धर्म प्रत्यय से भिन्न है फिर भी हमारे दर्शनों की प्रवृत्ति धर्म से समन्वित है। क्योंकि धर्म भी तथ्यों पर आधारित हैं, वे आचरणीय हैं और दर्शन के प्राप्तव्य का आचरण हम धार्मिक विधि से करते हैं । इसलिए धर्म साथ हमारे यहाँ दर्शन का समन्वय है । हम इसे बिल्कुल पृथक नहीं कर सकते । Jain Education International जब उनमे भारतीय दर्शनों में स्वतन्त्रता एवं धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों के बारे प्रश्न किया गया तो भी उन्होंने कहा- हमारे यहाँ "सर्व परवशं दुःखं सर्वमात्मवशं सुखम" कहा गया है । आत्मवशता ही स्वातन्त्र्य है । यह स्वातन्त्र्य हिन्दूदर्शन में तीन प्रकार से माना जाता था - ( १ ) विद्या की स्वाधीनता ( २ ) धर्म की स्वाधीनता तथा ( ३ ) अर्थ की स्वाधीनता । हमारे यहाँ का जीवन एवं दर्शन विद्या की स्वाधीनता परिसंवाद - ३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014014
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size21 MB
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