SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 23
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (ET) बिन्दु महाभारत के 'गुह्यं ब्रह्म तदिदं वो ब्रवीमि न मानुषाच्छेष्ठतरं हि किंचित्' में या मार्क्स के To be radical means to go to the root and root is man himelf में मिलता है । मौलिकता का अर्थ है मूल तक पहुँचना, और मूल स्वयं मानव है, वस्तुतः आज मानव मूलक-दर्शन ही चल सकता है (डा० हर्षनारायण ) । इस प्रकार का नया दर्शन तभी प्रतीष्ठित होगा जब पुराने दर्शनों के दबदबे का और उनके शास्त्र और शब्द का प्रामाण्य ध्वंस होगा । पुराने दर्शन एवं शास्त्र मात्र संदर्भ के लिए होंगे । पुराने शास्त्र ध्वंसावशेष की जमीन ईंट, पत्थर का काम करेंगे, लेकिन अभिनिवेश बदला हुआ होगा, सरंजाम, संयोजन नया होगा। यह एक सृजनात्मक ध्वंस का काम है ध्वंस से सृजन होगा। पुराने वीज की खोल फटने से नया अंकुर निकलेगा ( प्रो० कृष्णनाथ ) । कुछ विद्वान् नूतन चिन्तन के इतने अधिक पक्षधर थे कि वे पुनर्जन्म न स्वीकारते हुए भी कर्मफल के सिद्धान्त को बनाने के हामी रहे । और कहते रहे - कर्मफल सम्बन्ध आवश्यक है नीति के लिए, धर्म के लिए। लेकिन पुनर्जन्म आवश्यक नहीं है । पुनर्जन्म स्वीकार न करते हुए भी कर्मफल की व्यवस्था होनी चाहिए । किन्तु इसके लिए पुनर्जन्म का खण्डन न किया जाय। जो विश्वासानुसार कुछ लोग पुनर्जन्म स्वीकार करते हैं, करते रहें । लेकिन यह व्यवस्था दर्शन में हो कि पुनर्जन्म न स्वीकार करके भी कर्मफल का सिद्धान्त बन जाये ( प्रो० जगन्नाथ उपाध्याय ) | विज्ञान के नये आविष्कारों ने मनुष्य को इतना सबल बना दिया है। कि वह समझने लगा है कि जो पहले नहीं था वह भी किया जा सकता है । विज्ञान ने ईश्वर में, धर्म ग्रन्थों की अनादिता में संदेह पैदा किया है, है प्राचीन विचारक कर्मफल, दैवविधान आदि समझ कर का कारण प्रस्तुत करते थे, पर आज योग्यवस्तुओं की गुज़रने का साहस पैदा किया है ( प्रशे० देवराज ) । परम्परावादी विद्वानों में भी समाज में व्याप्त असमानता तथा दुःख को मिटाने की कसक है। वे एकबार दर्शन के परम्परागत स्वरूप के कारण करनी कथनी में भेद देखकर संदेह करते हैं तथा कहते हैं- दर्शनों ने जिस प्रकार का जीवन प्रतिपादित किया है वह हमारे व्यवहार से नहीं है, विषमता हमारे चिन्तन में नहीं दीखती है पौराणिक आख्यानों में, धर्मशास्त्रों में विषमता अवश्य है । यह विचारणीय है कि दर्शन का काम समत्व की प्रतिष्ठा करना है पर समाज में विषमता है इसके विरुद्ध दार्शनिक लोग क्यों नहीं बोलते हैं ? क्या यह हमारे चिन्तन की कोई त्रुटि तो नहीं है ( प्रो० बदरीनाथ शुक्ल ) । पर कुछ अन्य परम्परावादी शास्त्रों में उल्लिखित व्यवस्था से टस से मस नहीं होना चाहते हैं और कहते हैं - यदि शास्त्रं चक्षुः उपेक्षितं स्यात् तर्हि तद्धीनो मनुजोऽज्ञः मदान्धः किं किं न कुर्यात् सांप्रतम् । अतोऽप्येतद्दोषनिरासाय शास्त्रं चक्षुस्थानीयं दर्शनं भूषणं मन्तव्यम् । इत्येवं शास्त्रस्य पारमार्थिक व्यावहारिकभेदेन दर्शनत्वं द्विविधम् इति अतः हमारा दायित्व बढ़ा लोगों को दुःखी बने रहने सुलभ उपलब्धि ने नयाकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014014
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy