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________________ ( झ ) ये तार्किक कठिनाइयां अपने सुलझाव के लिये एक नये जीवनदर्शन की अपेक्षा करती हैं। (प्रो० जगन्नाथ उपाध्याय ) । पाश्चात्यदर्शन केवल इसी जीवन की समस्याओं का चिन्तन करता है और प्राच्य दर्शन मनुष्य जीवन की समस्याओं का आत्यन्तिक हल चाहता है । व्यक्तिगत एवं सामाजिक दोनों के लिये काम, क्रोध, लोभ आदि पर विजय प्राप्त करना यद्यपि आधुनिक दर्शन की समस्या नहीं है ? पर ये सार्वभौम समस्याये हैं । अतः यदि इस दर्शन को इसी जीवन की समस्याओं तक सीमित रखा जाय तब भी आवश्यक हो जाता है कि इन समस्याओं पर विचार करें (डा० रमाकान्त त्रिपाठी) । जैसा कि पूर्व गोष्ठी में नयेचिन्तन के लिए दर्शनों के नये वर्गीकरण पर बल दिया गया है। इस भाग में भी कतिपय विचारक नये वर्गीकरण के आधार पर नया दार्शनिक चिन्तन आवश्यक मानते हैं । इस सन्दर्भ में सन्तदर्शन, राजदर्शन, विज्ञानदर्शन आदि को आधुनिक युग की आवश्यकताओं के अनुसार दर्शन मानने की प्रस्तावना भी की गयी (प्रो० रघुनाथ गिरि) तथा विषयपरक वर्गीकरण है । आवश्यक रूप से स्वीकार किया गया । अनेक स्वरूप भी उदाहरण रूप से प्रस्तुत किये गये । कतिपय विद्वानों ने यह बतलाया कि संस्कृति-शून्यता आज के युग का प्रमुख संकट है । इसके कारण मानव जीवन में विसंगतियां उभर रही हैं । संस्कृति शून्यता का ही यह परिणाम कि आज इस देश के लोगों का नैतिक पतन चरमसीमा तक पहुंच गया है अतः भारतीय परिप्रेक्ष्य में एक ऐसे नवीनदर्शन की आवश्यकता है जो संस्कृति का दर्शन हो, किन्तु संस्कृति का शास्त्र न बने, बल्कि संस्कृति पुरुषों का निर्माण करे। यह दर्शन वस्तुतः जीवन दर्शन होगा, वाकविलास नहीं (डा० शंभुनाथ सिंह ) । मानवहित को यदि संपन्न करना है तो मनुष्य को परम्परावाद की हठवादिता तथा अल्ट्रामाडर्न की नास्तिकता एवं निराशावाद से पिण्ड छुड़ाकर दर्शन को स्वतन्त्र रखना है । और ऐसे दर्शन को विवेकपूर्ण मानव हित, सत्य तथा जिज्ञासा का चिन्तन करते हुए अपना स्वतन्त्र स्थान बनाना है ताकि उसमें न हठवादिता आये और न नास्तिकता (राधेश्यामधर द्विवेदी) । आज दर्शनको ऐहलौकिक सामूहिक मुक्ति, और समग्र मानवता के ऐहलौकिक कल्याण के लिए नूतन दृष्टि का उन्मेष करके ह्रासवाद के स्थान पर विकासवाद, भाग्यवाद के स्थान पर पुरुषार्थवाद की भारत में प्रतिष्ठा करके वाराहमिहिर की उक्ति को साकार करना है - 'वृद्धा हि यवनास्तेषु सम्यकशास्त्रमिदं स्थितम् । इस प्रकार स्वकीय परकीय का भेद हटाकर मानवीय विचारों में समन्वय स्थापित कर एक अखण्डविश्वसंस्कृति का निर्माण किया जा सकता है ( पं० ब्रजवल्लभ द्विवेदी) । इस प्रकार दर्शन की मौलिक चिन्तनशीलता तव विकसित होती है जब परम्परागत अतीत की थाती को पूर्णतः पचाया जाय । अतीत का दायित्वपूर्ण आकलन करके भावीनिर्माण संभव है । हमारा दर्शनेतिहास जो मैक्समूलर से लेकर यदुनाथसिनहा तक का है, वह मानव दर्शनसंग्रह है । मौलिकदर्शन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014014
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size21 MB
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