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________________ १७६ भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं फिर भी इनका कारण उनको प्रतिबद्धता को ही कहना पड़ेगा कि जैनदर्शन का विकास किसी प्रकार के अद्वैतवाद में नहीं हुआ। इसलिए प्रत्येक दर्शन के अन्तर्गत विषयपरक चिन्तन के सोपान स्वाभाविक रूप से आगे बढ़ते हुए प्रतीत नहीं होते हैं। इससे भी यह स्पष्ट है कि किसी दर्शन की जो कुछ तात्त्विक विकासप्रक्रिया रही, वह उसकी प्रतिबद्धता की सीमा के भीतर ही हुई। उदाहरण के लिए यदि हम बौद्ध अद्वयवाद का अध्ययन करना चाहें तो सौत्रान्तिक, वैभाषिक, विज्ञानवाद और अन्त में माध्यमिक विचार की विकास परम्परा का विश्लेषण करना पड़ेगा । कहने का आशय यह है कि किसी भी उपर्युक्त अद्वैतवाद को समझने के लिए पहले इस बिन्दु से प्रारम्भ करना पड़ेगा कि वह किस प्रकार की वैचारिक प्रतिबद्धता का विकसित रूप है। अतः मूल बिभाजन सिद्धान्त ( Fundamental divisions ) अनेकत्व, द्वित्व, एकरा अथवा अद्वयत्व को मानना समुचित नहीं प्रतोत होता है। क्योंकि भारतीय दार्शनिक चिन्तन की पृष्ठभूमि में इस प्रकार का विभाजन कुछ अप्राकृतिक जैसा लगता है। परवर्ती पाश्चात्य दर्शन के क्षेत्र में प्रतिबद्धता समान स्रोत रहा ईसाई मान्यता का। इसलिए दार्शनिक चिन्तन में प्रतिबद्धता जन्य विविधता का अवसर नहीं रहा। तथापि पाश्चात्य दार्शनिक साहित्य में भी, मेरे विचार से, दर्शनों का वर्गीकरण उपर्युक्त सिद्धान्त के आधार पर नहीं किया गया है। पाश्चात्य दर्शन की तत्त्वमीमांसा के ग्रन्थों में उपर्युक्त शीर्षकों के साथ दर्शन की समस्या का अध्ययन अवश्य किया गया है जो क्रमिक विकास के विश्लेषण की दृष्टि से आवश्यक और उपादेय है। भारतीय दार्शनिक परम्परा में इस प्रकार की प्रवृत्ति कम देखने को मिलतो है। परन्तु भारतीय दार्शनिक चिन्तन के व्यापक परिप्रेक्ष्य में यदि उपर्युक्त शीर्षकों के माध्यम से विभिन्न प्रस्थानों की समस्याओं का विश्लेषणात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया जाय और सम्पूर्ण भारतीय चिन्तन के प्रवाह में उनका मूल्यांकन किया जाय तो यह निश्चित ही एक स्तुत्य प्रयत्न होगा। ४. कहा जाता है कि भारतीय दर्शनों का कार्य अपनी अपनी धार्मिक मान्यताओं एवं विश्वासों की पुष्टि करना है। इसलिए यहाँ के दर्शन एक प्रकार के धार्मिक चिन्तन ही हैं। इस धारा में न तो स्वतन्त्र दार्शनिक चिन्तन सम्भव है और न उनका विशुद्ध दार्शनिक दृष्टिकोण से वर्गीकरण किया जा सकता है। इस बात का कहाँ तक औचित्य है ? क्या धर्म निरपेक्ष दार्शनिक चिन्तन का कोई वर्ग बन सकता हैं ? परिसंवाद-३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014014
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size21 MB
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