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________________ भारतीय दर्शनों का बर्गीकरण १७१ कोई व्यक्ति तभी इसका अपवाद हो सकता है यदि वह प्रमत्त हो। यह जीवन की एकमात्र या सबसे बड़ी समस्या है। और कहना नहीं होगा कि भारतीय दर्शन का उद्भव इसी परमव्यावहारिक समस्या में है और इसका लक्ष्य भी इसी के समाधान में है। बौद्धों के चार आर्य सत्य' -दुःखसत्य, दुःखसमुदयसत्य, दुःखनिरोध और दुःखनिरोधमार्गसत्य सुप्रसिद्ध ही हैं । सांख्य कहता है -दु:खत्रयाभिधाताजिज्ञासा तदपघातके हेतौ। इसी आशय की पुष्टि करते हुए न्याय सूत्र कहता है : दुःखजन्मप्रवृत्तिदोषमिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये तदनन्तरापायादपवर्गः। उक्त विषय को लेकर सभी भारतीय दार्शनिकों में ऐकमत्य है- चार्वाक भी इसका अपवाद नहीं है। इसी मौलिक सहजवृत्ति को आधार बनाकर भारतीय दर्शन प्रारम्भ होता है। शुत्र:दुःख के ठोस व्यावहारिक तटों के मध्य से यहाँ के दार्शनिक चिन्तन की धारा प्रवाहित होती है इसलिए वह भी मूलतः व्यावहारिक है । चिन्तन के रूप में उसकी सैद्धान्तिकता पुनः नियमित होकर व्यावहारिक स्वरूप धारण कर लेती है जिसे धर्म कहते हैं। धर्म को यहाँ अंग्रेजी के Religion या अरबी के मजहब के उस संकुचित अर्थ में नहीं लेना है जिसमें उसका आधार केवल कुछ आस्थाएँ और मान्यताएँ हैं। भारतीयविचार में धर्म उन सभी कर्तव्यों का समवेतरूप है जो किसी भी व्यक्ति के लिए धारण करने योग्य है- 'धारणाद्धर्ममित्याहुः।' इसी से समष्टि के लिए उस सूत्र का निर्माण होता है जिसमें गुम्फित हो कर मानव समाज को अपने लक्ष्य की उपलब्धि होती है-'धर्मो धारयति प्रजाः।' यह वस्तुतः वह शाश्वततत्त्व है या नियम है जो दर्शन के लिए वस्तुपरक ( Positive truth ) सत्य है और धर्म के लिए आदर्शपरकमूल्य ( normative value) है। पाश्चात्य विचार में धर्म और दर्शन की एकवाक्यता आवश्यक नहीं समझी गई। फलतः वहाँ दर्शन और धर्म में दोनों पृथक् सरणियों पर चले। इसलिए काण्ट के लिए धार्मिक लक्ष्य की पूर्ति का मार्ग केवल विश्वास है-(By faith and faith alone ) उसमें तर्क का कोई स्थान नहीं है किन्तु भारतीय चिन्तन में तर्क को धर्म का अत्याज्य सहायक माना गया है-यस्तकेंणानुसंधत्ते स धर्म वेद नेतरः (मनु०)। इतना ही नहीं, यहाँ तो यह कहा गया है कि तर्क के त्याग से धर्म की हानि होती है -'तर्कहीनविचारे तु धर्महानिः प्रजायते।' इसलिए भारतीय विचार में दर्शन केवल विज्ञानों का विज्ञान और कलाओं की कला ही नहीं, अपितु सभी धर्मों का आधार भी है प्रदीपः सर्वविद्यानामुपायः सर्वकर्मणाम । आश्रयः सर्वधर्माणां शश्वदान्वीक्षिकी मता ॥ परिसंवाद-३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014014
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size21 MB
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