SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 189
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं भारतीय दर्शन श्रद्धा तथा विश्वास मूलक धार्मिक चिंतन मात्र नहीं है। भारतीय दर्शन में ईश्वर तथा धर्म और वेदों को भी तर्क की कसौटी पर कसा गया है। पूर्वमीमांसा धर्मदर्शन और उसमें तर्क है। उत्तर मीमांसा में ईश्वर को तर्क से सिद्ध किया गया है। पूर्वमीमांसा में वेदों पर भी आक्षेप तथा तर्कमूलक समाधान किया गया है। भारतीय दर्शनों में सभी चिंतन धर्मनिरपेक्ष हैं। भारतीयदर्शनों का विशुद्ध दार्शनिक दृष्टिकोण से वर्गीकरण नहीं हो सकता। ५--भारतीय दर्शनों में स्वयूथ्य के मतखंडन में आगम प्रमाण देते हैं। विपक्ष खण्डन तो तर्क से ही करते हैं। ६-प्रश्नावली ६ में कहा गया है कि कोई नवीन दार्शनिक प्रस्थान खड़ा करने के लिए प्राचीनसूत्र या शास्त्रों की अपने अनुरूप नवीन व्याख्या की जाती है। इससे वह माना जाता है कि भारतीय दर्शनों में मौलिक चिंतन अधिक प्राचीन काल में हुआ, बाद में उसकी धारा अवरुद्ध हो गयी। इसका उत्तर यह है कि भारतीय दर्शनों का मूल उत्पत्ति स्थान उपनिषदें हैं। जैसे न्याय, वैशेषिक, दर्शनों के परमाणु सिद्धान्त का उद्गम उपनिषदों से हुआ। यह उपनिषद् सिद्धान्त पंचीकरण प्रक्रिया के वर्णन से स्पष्ट होता है। परमाणु सिद्धान्त को ही सांख्य तथा योग वालों ने तन्मात्र कहकर अपनाया और इस सांख्य योग के सिद्धान्त को व्यवहार में अद्वैतवादियों ने भी माना। और परमाणु सिद्धान्त को वैष्णव दर्शनों ने अपनाया। पूर्वमीमांसादर्शन में अदृष्टवाद का सिद्धान्त भी उपनिषदों तथा ब्राह्मण ग्रन्थों से आया है, क्योंकि उपनिषदों में उपासनाओं से और ब्राह्मण ग्रन्थो में योग, होम, दानादि कर्मों से फल की सिद्धि कही गयी है। वे कर्म नश्वर होते हैं। अतः उन कर्मों का फलाव्यवहित पूर्वकाल भावित्व बाधित है । अतः फल सिद्धि के लिए कोई कर्मजन्य अदृष्ट रूप अवान्तर व्यापार माना जाता है । यही अदृष्टवाद है। इसी प्रकार मुख्यतः इन भारतीय दर्शनों का तीन वर्गीकरण हुआ। न्याय वैशेषिक-प्रथम वर्ग, सांख्य योग-द्वितीय वर्ग, और पूर्वोत्तर मीमांसा-तृतीय वर्ग। न्याय-वैशेषिक में बहुत थोड़ा भेद है। द्वित्वे च पाकजोत्पत्तौ विभागे च विभागजे। यस्य नस्खलिता बुद्धिस्तं वैशेषिकं विदुः ॥ इति परिसंवाद-३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014014
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy