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________________ १०४ भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं बौद्धों एवं जैनों की भाँति गांधीजी भी यह मानते थे कि हिंसा सब पापों का मूल है। उनकी दृष्टि में सभी प्रकार के पाप-कर्म हिंसा के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्षा परिणाम है। अतः हिंसा के उन्मूलन का अर्थ है सभी पापों का उच्छेद । मनुष्य के विविध स्वार्थों, संकीर्णताओं तथा दुष्कर्मों से तभी छुटकारा मिल सकता है जब हिंसा से छुटकारा मिले। हिंसा वृत्ति का मूल है अपने को दूसरे से अलग समझने की भावना जिसे जैनदर्शन में अत्तावाद की संज्ञा दी जाती है। अहंता से स्वार्थ उत्पन्न होता है और स्वार्थ के कारण मनुष्य केवल स्वहित का ध्यान रखता है, परहित तथा सर्वहित का तिरस्कार करता है। स्वहित में निरन्तर प्रवृत्त रहना हिंसा है। इसीलिए अहिंसा के अनुसरण करने का तात्पर्य स्वार्थ भावना के मूल अर्थात् अहंता के निराकरण के लिए प्रयत्नशील होना। इसे दूसरे शब्दों में आत्मनिषेध भी कहा जा सकता है। यदि पूर्ण आत्म निषेध करना सम्भव न भी हो, तो कम से कम दूसरों को अपनी ही तरह या अपनी ही स्थिति में देखा जा सकता है-आत्मवत् सर्वभूतेषु । लेकिन अहंता निवृत्ति या आत्म निषेध की भावना के साथ अहिंसा को जोड़ने का अर्थ यह नहीं लगाया जाना चाहिए की गांधीजी की दृष्टि में अहिंसा एक नितान्त वैयक्तिक गुण है जिसको महत्त्व केवल व्यक्ति के लिए है, समाज के लिए नहीं। गांधी के लिए अन्य सामाजिक मूल्यों की तरह अहिंसा भी एक सामाजिक मूल्य है जो सामूहिक स्तर पर एक सामाजिक गुण की तरह विकसित होने की पूरी सम्भावनायें रखता है। उनका तो कहना था कि समाज को बाँधने या उसे एकीकृत करने का वास्तविक आधार हिंसा है। जिस प्रकार पृथ्वी गुरुत्वाकर्षण के सिद्धान्त के कारण अपनी जगह पर स्थित है, उसी प्रकार मानव समाज भी अहिंसा के कारण सम्भव है। इस प्रकार गांधीजी अहिंसा को सामाजिक स्तर पर प्रतिष्ठित करते थे। उनका विचार था कि यदि अहिंसा केवल व्यक्तिगत स्तर तक सीमित रहती है तो उसका समाज के लिए कोई प्रत्यक्ष महत्त्व नहीं रह जाता । उनके अनुसार अहिंसा सामाजिक जीवन के हर स्तर में व्यवहार योग्य है। दो घनिष्ट मित्रों के पारिस्परिक सम्बन्धों से लेकर के अन्तराष्ट्रीय सम्बन्धों तक अहिंसा का सतत् प्रयोग किया जा सकता है। समाज में व्यावहारिक स्तर पर गांधी ने अहिंसा के प्रयोग के चार स्तरों की चर्चा की है। पहला स्तर है किसी स्थापित व्यवस्था के विरुद्ध अहिंसा का प्रयोग, उदाहरण के लिए विदेशी शक्ति के विरुद्ध अहिंसक संघर्ष। दूसरा स्तर है समाज के अन्दर विभिन्न समुदायों के पारस्परिक झगड़ों में अहिंसा का प्रयोग, यथा साम्प्रदायिक दंगों में अहिंसा का व्यवहार । तीसरा स्तर है किसी विदेशी आक्रमण से बचाव करने में अहिंसा का प्रयोग। चौथा या अन्तिम स्तर है मनुष्यों के निजी परिसंवाद-३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014014
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size21 MB
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