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________________ सत्य और अहिंसा की अवधारणा : १०३ अहिंसा के मामले में गांधी श्रमणपरम्परा के अधिक निकट थे। भारतीय संस्कृति की श्रमण परस्परा जिसमें जैन और बौद्ध दोनां परम्परायें समाहित हैं की एक विशेषता है अहिंसा का तत्त्वज्ञान और उसका व्यापक प्रयोग। गांधी पर इस परम्परा का सबसे बड़ा प्रभाव उनकी अहिंसा की अवधारणा में प्रकट होता है। गांधीजी कर्म और विचार दोनों क्षेत्रों में अहिंसा का विस्तार करते थे। उन्होंने अहिंसा को इतना विस्तृत किया कि प्रायः सभी प्रधान नैतिक गुण उसमें समाहित हो जाते हैं। उन्होंने अहिंसा को क्षमा, प्रेम, स्वार्थहीनता. विनम्रता सज्जनता, आस्तेय, निर्भीकता, निश्छलता, तथा करुणा जैसे विशेषणों से सम्बोधित किया है। उनकी दृष्टि में झूठ, मक्कारी, धोखाधड़ी छल-कपट, षडयन्त्र और तुच्छता आदि सभी अवगुण तथा गलत तरीके अहिंसा के विलोम है, अर्थात् हिंसा के रूप है। इस प्रकार अहिंसा को हिंसा के अभाव के रूप में देखा जा सकता है। अहिंसा का महत्त्व हिंसा के सन्दर्भ में ज्ञात होता है। हिंसा के रहते हुए हिंसा की आवश्यकता है। गांधीजी के अनुसार अहिंसा के सिद्धान्त को तब आघात पहुँचता है जब मन में किसी के प्रति दुविचार या दुर्भावना उत्पन्न होती है, जब झूठ बोला जाता है जब किसी के प्रति ईष्या तथा द्वेष उपजता है । जब किसी की अहित कामना की जाती है और जब किसी न किसी रूप में अनिष्ट तथा बैर का भाव प्रकट होता है। इस तरह अहिंसा की अवधारणा का विस्तार बहुत दूर तक हो जाता है। लेकिन गांधीजी यहीं पर नहीं रुकते। उनकी नजरों में यदि कोई व्यक्ति ऐसी वस्तु पर एकाधिकार जमाता है जिसकी समूह या समाज को आवश्यकता है तो वह भी हिंसा है। संचयवृत्ति सम्पत्ति या पूँजी पर निजी अधिकार तथा अपने सुख एवं भोग के लिए वस्तुओं के उपभोग एवं प्रयोग से दूसरे को वंचित करना भी हिंसा है। अतएव गांधी की अहिंसा व्यक्ति की संचय वृत्ति और भोगवृत्ति के समूल निराकरण की अपेक्षा करती है। इस अर्थ में अहिंसा को असीम त्याग और धैर्य का पर्याय कहा जा सकता है। जब संचयवृत्ति का अवसान होगा तो त्यागवृत्ति का उदय होगा, जब भोगवृत्त का शमन होगा तो सादे और सहज जीवन का प्रादुर्भाव होगा। यह मनुष्य को अनावश्यक आसक्तियों से मुक्त करता है। मनष्य आसक्तियों से जैसे-जैसे मुक्त होता जाता है वैसे-वैसे उसमें अवैर भावना विकसित होती है। इसलिए गांधी जी का कहना था कि अहिंसा के अनुसरण द्वारा शत्रु या वैरी के प्रति केवल निरपेक्ष सहानुभूति ही उत्पन्न नहीं होती वरन् एक सच्चे अहिंसक व्यक्ति के लिए शत्रु या शत्रता का अस्तित्व ही नहीं रहता । अहिंसक व्यक्ति अजातशत्रु होता है। परिसंवाद-३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014014
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size21 MB
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