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________________ बौद्धविचारों की दृष्टि में व्यक्ति और समाज और उनका सम्बन्ध फिर भी अगर व्यक्ति या समाज में प्रथम कौन है इसपर जोर ही दिया जाय तो ऐसा लगता है कि परम्परागत दृष्टि में व्यक्ति ही प्रथम है। आत्म और अन्य में आत्म प्रथम है। धम्मपद के 'अत्तवग्गो' में कहा गया है कि पण्डित पहले अपना दमन करें, फिर दूसरे को उपदेश करें। यह भी कहा गया है कि पूरी पृथ्वी को काँटों से रहित नहीं किया जा सकता, इसलिए खुद अपने पैर में जूता पहन लें; फिर अपने में भी चित्त पहले है। चित्त जिधर जाता है उसके ही पीछे-पीछे शरीर जाता है। परम्परागत दृष्टि में ऐतिहासिक के बजाय नैतिक दृष्टि पर बल है। ऐतिहासिक दृष्टि से दासता प्रथा, स्वामी-दास का सम्बन्ध और उसमें निहित हिंसा एक ऐतिहासिक अनिवार्यता मान ली जाती है। किन्तु नैतिक दृष्टि से जो बुरा है, वह सब देश-काल में बुरा है । उसमें ऐतिहासिक अनिवार्यता का प्रश्न नहीं है। आत्म और अन्य में सम्बन्ध का आधार क्या है ? यह आधार एक नहीं अनेक हो सकते हैं। आधुनिककाल में उपयोगिता और अधिकतम आधार माना गया। फिर लेन-देन या विनिमय भी इसका आधार कहा जाता है । श्रम-विभाजन के समाज में कोई व्यक्ति एक चीज तैयार करे और दूसरा दूसरी और आपस में अदल-बदल कर ले तो इससे दोनों को दोनों चीजें ज्यादा मिल सकती हैं। फिर मनुष्यों में लेन-देन और अदल-बदल की एक प्रवृत्ति भी देखी जाती है। इन सम्बन्धों के बीच स्पर्धा, संघर्ष, समन्वय, एक या दूसरा या सब कुछ देखा जा सकता है। जब कि परम्परागत दृष्टि में बहुत करके व्यक्ति और समाज के सुख में अद्वय देखा जाता रहा है। स्व-पर समता और स्व-पर परिवर्तन इस दृष्टि के अनुसार आत्म और अन्य में सम्बन्ध का आधार है। वैसे यह एक खुली हुई सूची है और इसमें कुछ भी जोड़ा या घटाया जा सकता है। इस तरह अन्य प्राचीन प्राच्य एवं पाश्चात्य धर्म-दर्शनों की तरह, बौद्ध दृष्टि भी व्यक्ति और समाज में अन्योन्याश्रय सम्बन्ध देखती है, द्वन्द्व नहीं। आधुनिक काल में, विशेषकर उन्नीसवीं सदी के यूरोप में, एक ओर व्यक्तिवादी और दूसरी ओर समष्टिवादी दष्टि का जोर हुआ। यह दोनों ही एकाङ्गी हैं, इसलिए मिथ्या दृष्टियाँ हैं। जब कि प्राचीन परम्परागत बौद्धदृष्टि सम्यकदृष्टि है। इस दृष्टि के अनुसार व्यक्तिवाद एक अन्त में पतित होता है, तो समष्टिवाद दुसरे अन्त में । जब कि सम्यक् दृष्टि इन दोनों अन्तों का परिहार करती है। __अब प्रश्न है कि पद्धति की दृष्टि से जो व्यक्तिवादी या समाजवादी भेद आता है उसका क्या समाधान है ? जैसे शील का पालन व्यक्ति से शुरू करें तो वह एक परिसंवाद -२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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