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________________ व्यष्टि और समष्टि : बौद्धदर्शन के परिप्रेक्ष्य में सांसारिक व्यक्ति के लिए, उस व्यक्ति के लिए जो व्यष्टि और समष्टि की बातें उठाकर राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक शक्ति का उपभोग करना चाहता है, बोधिसत्त्व मार्ग पर चलना असम्भव है, बल्कि यह बोधिसत्त्व के उपदेशों को भी सुनने के लिए तैयार नहीं होगा। तो फिर क्या हम बुद्ध के शासन को उसके भाग्य पर छोड़ दें, और यह कहकर सन्तोष कर लें कि 'ज्ञातारो भविष्यन्ति ?' शायद निवृत्ति-प्रधान श्रमण परम्परा इस तरह कष्ट सहने और लोगों को सद्धर्म का उपदेश देने के सिवा और कर भी क्या सकती है ? परन्तु दृष्टियों के प्रहाण से जो एक शून्यता की भावना उत्पन्न होगी, उसको भरने के लिए माध्यमिक दर्शन के पास अज्ञानियों के ऊपर करुणा करने के सिवा और देने को क्या है ? प्रहीण दृष्टि व्यक्ति जब जानता है कि सारा झगड़ा दृष्टियों के कारण है, और लोगों से कहता है कि तुम सब मिथ्या दृष्टि से व्यथित हो, तब वह लोगों के उपहास का पात्र बन कर रह जाएगा। थोड़ी देर के लिए मान लें कि दृष्टि में आसक्त व्यक्तियों को कष्ट से छुटकारा दिलाने के लिए वह उनके बीच जाता है, उनकी सेवा करने का महान् उद्यम करता है, इस उद्यम में वह अपने जीवन का उत्सर्ग कर देता है। पर क्या उसके इस उत्सर्ग का किञ्चित् भी अभीष्ट परिणाम निकलने की आज के युग में आशा की जा सकती है ? महात्मा गांधी की सेवाभावना और उनका आत्मदान क्या गांधी के किसी आदर्श को सिद्ध करने में सफल हुआ है ? मैं समझता हूँ कि गांधी के सारे उपदेश और आदर्श का आज केवल एक ही उपयोग रह गया है। गांधी का नाम लेकर वे सारे कार्य कर डालो जो गांधी की विचारधारा से एकदम भिन्न हैं। __ यह विचारणीय है कि आज का व्यक्ति समाजवाद, साम्यवाद आदि के नारों से क्या पा लेता है जो उसे बौद्ध दर्शन, गांधीवाद या वेदान्त में नहीं मिलता। मैं समझता हूँ कि समाजवाद, साम्यवाद आदि दृष्टियों में समष्टि और व्यष्टि में आदान-प्रदान का बड़ा गहरा सम्बन्ध माना गया है। व्यष्टि यदि समष्टि के लिए कुछ करता है तो व्यष्टि को समष्टि से बदले में कुछ पाने का अधिकार मिल जाता है। उसी तरह समष्टि के कारण यदि व्यष्टि का कुछ लाभ होता है तो समष्टि उस व्यष्टि पर अपना अधिकार समझती है । अधिकार और कर्तव्य की यह भावना एक ओर सुख, सुविधा की कामना से और दूसरी ओर अवहेलना जनित दण्ड के भय से नियन्त्रित होती है। यदि व्यष्टि को अपेक्षित लाभ नहीं मिलता तो वह तब तक समष्टि की अवहेलना नहीं कर सकता, जब तक समष्टि के पास व्यष्टि को नियन्त्रित या दण्डित करने का साहस और सामर्थ्य है । यदि समष्टि का सामर्थ्य क्षीण हो गया तो व्यष्टि की उच्छृङ्खलता, स्वेच्छाचारिता बढ़ जाती है। इस प्रकार के किसी आदान परिसंवाद-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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