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________________ व्यष्टि और समष्टि : बौद्धदर्शन के परिप्रेक्ष्य में ५१ अनुभव में विषय-विषयी, गण-गुणी आदि का भेद वस्तुतः दृष्टिकृत भेद है, अनुभवगत नहीं। दृष्टि का इस प्रकार अनुभव से पार्थक्य दिखाकर अनुभव को दृष्टि के प्रपञ्च से अप्रपञ्चित और दृष्टि को स्वभाव से शून्य बतलाया गया । जब दृष्टि का कोई स्वभाव नहीं है तो उसके द्वारा यथार्थ का ज्ञान हो ही नहीं सकता। इसलिए निराधार दृष्टि दूसरी दृष्टि से निराकृत हो जाती है। अनुभव में भी दृष्टि की तरह ही अनुभूयमान वस्तु से पार्थक्य सम्भव है इसलिए तत्तत् दृष्टि की तरह तत्तत् अनुभव में भी शून्यता ही है। इसीलिए अद्वैत वेदान्त की प्रत्यक् अपरोक्षानुभूति भी दृष्टि-पतित अनुभूति ही मानी जाएगी, क्योंकि विषय-विषयी के भेद की दृष्टि के बिना अनुभव भी सम्भव नहीं है । अतः दृष्टि और दृष्टि के द्वारा व्याख्यात अनुभव दोनों को तिरस्कृत कर देने के कारण माध्यमिकों के पास सर्व-प्रहाण के सिवा कोई रास्ता नहीं रह जाता । यह सर्व-प्रहाण या शन्यता स्वयं दष्टि नहीं है, क्योंकि भाव का निषेध भावान्तर नहीं होता । भाव के निषेध को भावान्तर मानना भी एक दृष्टि ही है। जो लोग शून्यता. को महादृष्टि मानने लगते हैं, वे असाध्य है, दृष्टिकृत दोषों से उनको मुक्त नहीं किया जा सकता। हमने देखा कि दृष्टि-प्रहाण के लिए अद्वैत वेदान्त का अभिमत सकल दृष्टियों को अतिक्रान्त करने वाले अपरोक्ष अनुभव के साथ अपना तादात्म्य स्थापित करना है। इस तादात्म्य के बाद यदि इन दृष्टियों पर पुनः दृष्टिपात किया जाए तो हर दृष्टि उस अनुभव की एक झलक उपस्थित करतो-सी प्रतीत होने लगती है। यह प्रतीति अपरोक्षानुभूति से पूर्व उदित नहीं होती। इसीलिए वेदान्ती सकल चराचर में उस ब्रह्म का नित्य स्फुरण देखता हुआ व्यवहार करता है, यही व्यवहार जीवन्मुक्ति का आचरण बनता है। माध्यमिकों के मत में सकल दृष्टि में शून्यता है और शून्यता की शून्यता में भी शून्यता ही हाथ लगती है। इसलिए सर्वदृष्टि-प्रहाण के बाद शून्यता का ही आभास होता है और इस आभास को निरन्तर अभ्यस्त करता हुआ बोधिसत्त्व पर के दुःख से कातर होकर दूसरों को भी शून्यता के मार्ग पर प्रतिष्ठित करने की देशना देता है। व्यष्टि तथा समष्टि का विवेचन व्यष्टि अपने आप में क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर व्यष्टि के प्रत्यय को ध्यान में रखकर दिया जा सकता है। माध्यमिक इस बात पर जोर देगा कि समष्टि के सन्दर्भ के बिना व्यष्टि की बात ही नहीं की जा सकती। समष्टि के प्रत्यय को विश्लेषित करके व्यष्टि का प्रत्यय निकाला जा सकता है। यदि व्यष्टि वस्तुतः निरपेक्ष सत् हो परिसंवाद-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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