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________________ प्राचीन बौद्धों की दृष्टि में व्यष्टि एवं समष्टि ४५ का समस्त संस्कार प्रहीण रहता है। चित्त सर्वमलविरहित अत्यन्त परिशुद्ध रूप में अभिव्यक्त है। चित्त की यह दशा ही निर्वाण है तथा इससे उपेत पुरुष अर्हत् है। वह 'स्व' को बांधने वाले अराओं के विनष्ट होने या 'स्व' की परिधि से पार चले जाने के कारण अर्हत् कहलाता है। यह स्थिति 'स्व' का 'पर' में विलय की है। पर यह दर्शनीय है कि यह विलय 'स्व' की सरणी में है, कारण यह कि पुरुष स्व विमुक्ति से सन्तुष्ट हो विमुक्ति सुख की अनुभूति करता है। (९) बोधिसत्त्व-विमुक्ति भी अपने लिए ही न हो, वरन् सबके लिए हो, इसका कार्यान्वयन व्यवहार की धरातल पर जिसके द्वारा होता है, वह बोधिसत्त्व है। 'मुझ एक के तीर्ण होने से क्या लाभ, जब कि समस्त प्रजा अतीर्ण है'--यह उद्घोष उसके द्वारा व्यवहार के धरातल पर उतारा जाता है और वह स्वमुक्ति का परमुक्ति के लिए परित्याग करता है। इतना ही नहीं, वरन् मनोधरा पर परिज्ञात मूल्यों को वह पारमिता के रूप में अपने कार्यकलापों में उतारता है। इसे वह 'पारमी', उपपारभी' तथा 'परमत्थपारमी' के रूप में काय-वची तथा मनोकर्म के धरातल पर मूर्त करता है। ये सभी कार्य परार्थ होते हैं। 'स्व' पूर्णतः विलीन रहता है। यहाँ मूल्यों का अपनी चर्याओं से कार्यान्वयन है, पर-प्रेरणा भी है, परन्तु सर्वत्र आक्षेपन नहीं है। (१०) प्रत्येकबुद्ध-यह एक मुक्त प्राणी है। यह प्रत्येक बोधि के अधिगम से उपेत है । इसे सत्य का साक्षात्कार हुआ रहता है पर सर्वज्ञता एवं बलवशिता अप्राप्त रहती हैं। इसके मनोकर्म तथा कायकर्म बुद्धचर्या से युक्त हैं तथा उस सीमा तक परार्थ होते हैं, पर वह वाचाविन्यास पूर्वक परार्थकार्य से वंचित रहता है। अतः पूर्णतः परसमर्पित नहीं होता है। (११) सम्यक्सम्बुद्ध-यह पूर्णतः मुक्त पुरुष है। यह सम्यक्सम्बोधि प्राप्त, सत्य का साक्षात्कृत, सर्वज्ञता उपेत, वलवशितायुक्त, स्वपरिधि से दूर, शुद्ध-बुद्ध पुरुष है। यह स्वयंतीर्ण तथा समस्त प्राणियों के तारण शक्ति से युक्त रहता है। वह पूर्णतः परसमर्पित होता है, फलतः उसके सभी कार्य परार्थ होते हैं। यह अम्बर सदृश सर्वव्याप्त, शीतलजलभारभारित पर्जन्य सदृश सर्वहितानुकम्पी तथा सर्वदा बहुजनहिताय बहुजनसुखाय रत रहता है। ऐसे पुरुष का इन उदात्त मूल्यों से उपेतभाव ही समष्टि है। परिसंवाव-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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