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________________ ३६ भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएँ के नियमों से न व्यक्ति मुक्त होगा न संघ । पर यहाँ शील संघ के बिना व्यक्ति को प्राप्त ही नहीं होता । इस तथ्यों से सिद्ध होता है कि व्यक्ति और संघ पूर्णरूप से एक दूसरे पर निर्भर हैं, परस्पर सापेक्ष हैं, प्रतीत्यसमुत्पन्न हैं । प्रतीत्यसमुत्पाद में कोई एक प्रधान या दूसरा साधारण नहीं होता । इस कारण विनय की दृष्टि से समष्टि और व्यष्टि, व्यष्टि अथवा संघ में समता और सन्तुलन देखा जा सकता है, किसी की प्रधानता नहीं मानी जा सकती। इस प्रसङ्ग में मैं एक समस्या की चर्चा कर अपने लेख को समाप्त करूँगा । आध्यात्मिक दृष्टि से विचार करने वाले एवं कर्मफल के सिद्धान्त को मानने वाले विद्वानों के मन में यह आशंका उठा करती है कि सामाजिक दुर्व्यवस्था के कारण निर्दोष व्यक्ति क्यों सताया हुआ और दुःखी अनुभव करता है । एक व्यक्ति सांसारिक प्रपञ्च से विरक्त होकर घर छोड़ता है, प्रब्रजित होता है, और वह संघ आदि दूसरे संगठन या समाज में जा मिलता है तो इस प्रकार व्यक्ति की एक समाज को छोड़कर दूसरे में जा मिलने में क्या विवशता है । इस प्रकार समाज या संगठन के भीतर कार्य करने वाली वह कौन-सी शक्ति है, जो व्यक्ति को किसी न किसी रूप में उसके अधीन होने के लिए विवश करती है । दूसरी ओर एक व्यक्ति या समाज का एक अंग कोई बुरा कर्म - चोरी, हिंसा, आर्थिक शोषण आदि करता है अथवा युद्ध जैसे नृशंस काण्ड खड़ा कर देता है, तो सारे निर्दोष समाज को उसके बुरे कर्म का प्रतिफल भोगने के लिए विवश हो जाना पड़ता है | यह क्यों ? इन प्रश्नों के मूल कारण का परिज्ञान हो सके तो व्यक्ति और समाज के बीच की बहुत-सी समस्याओं का हल निकलने की सम्भावना बढ़ जाती है । समाज की संरचना में जातियों के नृशास्त्रीय सिद्धान्त, भूगोल की सीमा, जलवायु आदि, प्राकृतिक साधन का प्रभाव देखा जाता है । इसलिए व्यक्ति किसी न किसी समाज के प्रति प्रतिबद्ध होता है, चाहे वह परम्परा से चला आने वाला समाज हो अथवा नवनिर्मित समाज हो । उस समाज के सभी क्रिया-समूह का उत्तरदायी व्यक्ति हो जाता है, क्योंकि उसने जाने या अनजाने उसे स्वीकार किया है। जैसे एक लड़का ब्राह्मण कुल में जन्म ले तो कुछ वर्ष के बाद यज्ञोपवीत आदि संस्कार से संस्कारित होगा और उसे आजीवन ब्राह्मण समाज का निर्वाह करना पड़ेगा । इसी प्रकार एक पंचवर्षीय बालक के श्रामणेर संवर लेकर श्रामणेर बनने पर जीवन भर उसको उससे परिसंवाद - २ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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