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________________ भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं हुए भी उसके अन्तर्भत है, भिक्षु-संघ भी वास्तविक संघ-शरण न होने पर भी संघशरण के अन्तर्भूत है। संघ-शरण और भिक्षु-संघ के भेद को स्पष्ट रूप में रखते हुए विचार करें तो सुसंगत होगा। अन्य शरणों में भी फलभूत शरण ही यथार्थ शरण होता है । हेतुभूत शरण मात्र प्रेरणादायक होता है। अतः शरण-गमन का अभिप्राय, अपने द्वारा लभ्य फलभूत शरण को प्राप्य मानकर उसको प्राप्त करने का संकल्प करना ही होता है । इस प्रकार शरण-गमन आत्म-समर्पण नहीं है, बल्कि वह तो लक्ष्यप्राप्ति एवं पुरुषार्थ का साधन है। इसकी और स्पष्टता आवश्यक है। विनय के नियमों के अनुसार उपसम्पन्न होने के लिए व्यक्ति को भिक्षु-संघ पर अवलम्बित रहना आवश्यक होता है। फिर भी इससे यह नहीं समझना चाहिए कि व्यक्ति अपना अस्तित्व मिटाकर अथवा वैयक्तिक स्वतन्त्रता को समाप्त कर भिक्षु-संघ के प्रति आत्मसमर्पण करता है। यहाँ यह भी विचारणीय है कि विनय के नियमानुसार उपसम्पन्न होने के दस प्रकार की विधियों में केवल एक विधि ऐसी है जो प्रस्तावना एवं अन्य चार संघ-कर्मों से उपसम्पदा दिलाती है और वह उपसम्पदा भिक्षु-संघ के बिना सम्पन्न नहीं हो सकती। इसके अतिरिक्त बुद्ध स्वतः उपसम्पन्न होते हैं। प्रत्येकबुद्ध बिना आचार्य के उपसम्पन्न होते हैं । पंचवर्गीय भिक्षु ज्ञानलाभ से उपसम्पन्न हुए। महाकाश्यप ने बुद्ध को अपना शास्ता माना, उसी कारण से वह उपसम्पन्न हो गये। भिक्षु उदायी प्रश्नोत्तर से उपसम्पन्न हो गए तथा अनेक भिक्षु तो 'केवल यहाँ आवें', इस सम्बोधन से ही उपसम्पन्न मान लिए गये। शरणगमनमात्र से उपसम्पन्न होने की भी पूर्व विधियाँ रही हैं और उन स्थितियों में उपसम्पदा केवल भिक्षु-संघ पर निर्भर कही जा सकती। भिक्ष-संघ एक विशेष प्रकार का संगठन अथवा समुदाय है, जिसमें निर्वाण का इच्छुक व्यक्ति प्रातिमोक्ष-शील ग्रहण कर उसका सदस्य बनता है। उसका लक्ष्य व्यावहारिक समाज के लक्ष्य एवं आदर्श से भिन्न है। भिक्षु-संघ के नियम तथागत ने प्रव्रज्या लेने वालों को अनागारिक की संज्ञा दी है जिसका अर्थ है-गृहविहीन । जो गृह की सारी सम्पत्ति सुविधा को त्याग कर निर्वाण के पथ का पथिक होकर अध्ययन और ध्यानरत हो गया है-वह इन दो कार्यों के लिए ही जिसने जीवन समर्पित कर दिया है । परिसंवाद-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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