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________________ बौद्धदर्शन की दृष्टि से व्यक्ति एवं समाज दो प्रत्यय होते हैं। प्रत्यय कुल चार ही होते हैं, यथा-हेतुप्रत्यय, समनन्तरप्रत्यय, आलम्बनप्रत्यय एवं अधिपतिप्रत्यय । इन चार प्रत्ययों से ही सम्पूर्ण जड एवं चेतन जगत् की उत्पत्ति हो जाती है। एक साथ उत्पन्न, परस्पर सम्प्रयुक्त पदार्थ आपस में एक दूसरे के हेतु-प्रत्यय होते हैं। पूर्ववर्ती चित्त-चैतसिक परवर्ती चित्त-चैतसिकों के समनन्तर-प्रत्यय होते हैं। रूप, शब्द, गन्ध , रस आदि विषय आलम्बन-प्रत्यय होते हैं। अपने को छोड़कर अन्य सभी पदार्थ सभी पदार्थों की उत्पत्ति में अधिपति-प्रत्यय होते हैं। क्योंकि वस्तु खद अपना कारण नहीं हो सकती । व्यक्ति के चेतनांश की उत्पत्ति में ये चारों प्रत्यय कार्य करते हैं, किन्तु जड पदार्थ एवं चित्तविप्रयुक्त संस्कारों की उत्पत्ति में इनमें से दो ही प्रत्यय अर्थात् हेतु-प्रत्यय एवं अधिपति प्रत्यय ही कार्यकारी होते हैं। ऊपर कहा गया है कि व्यक्ति या पुद्गल एक विप्रयुक्त संस्कार है, अतः उसके अस्तित्व के लाभ में हेतुप्रत्यय और अधिपति ये दो हीप्रत्यय कार्य करते हैं । यह भी अभी कहा गया है कि स्व (अपने) को छोड़कर अन्य समस्त पदार्थ समस्त पदार्थों की उत्पत्ति में अधिपति-प्रत्यय होते हैं। फलतः निष्कर्ष यह हुआ कि एक व्यक्ति के उत्पाद में अन्य समस्त जड, चेतन धर्मों की कारणता है। जो यह कहा जाता है कि समाज के बिना व्यक्ति का होना सम्भव नहीं है या समाज व्यक्ति का कारण है, यह सिद्धान्त बौद्धों के इस अधिपति प्रत्यय के नियम से मेल खाता है। विज्ञानवादियों ने भी कहा है कि किसी व्यक्ति में जो कुशल या अकुशल विज्ञप्तियाँ उत्पन्न होती हैं, वे अन्य व्यक्तियों की विज्ञप्तियों से उत्पन्न होती हैं। अर्थात् व्यक्तियों की विज्ञप्तियों में परस्पर-कारणता होती है, तथा हि अन्योऽन्याधिपतित्वेन विज्ञप्तिनियमो मिथः ॥ (विशिका विज्ञ० १८ कारिका) इस सारे कथन का सारांश यह है कि कोई भी कार्य एक कारण से नहीं होता। व्यक्ति या सम्पूर्ण जड-चेतन जगत् के उत्पाद में उपर्युक्त प्रत्ययों की ही कारणता है। इनके अतिरिक्त कोई ईश्वर आदि कारण नहीं हुआ करता, वसुबन्धु ने इसीलिये अभिधर्मकोश में कहा है चतुभिश्चित्तचैत्ता हि समापत्तिद्वयं त्रिभिः। द्वाभ्यामन्ये तु जायन्ते नेश्वरादेः क्रमादिभिः ॥ (अभिधर्मकोश २।६४) सारांश यह है कि व्यक्तित्व के उत्पाद के अनेक कारण हैं। वह ईश्वर आदि किसी एक कारण से उत्पन्न नहीं है। साथ ही उसके निर्माण में समस्त समष्टि का योगदान है । सारा मनुष्य समाज, यहाँ तक कि पूरा जगत् उसका अधिपति-प्रत्यय है। कोई साक्षात् कारण है, तो कोई परम्परया कारण है। वे सारे व्यक्ति या पदार्थ एक परिसंवाद -२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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