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________________ २० भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएँ करते हैं । जड या चेतन वे सभी विद्यमान धर्म द्रव्यसत् हैं, जिनका अस्तित्व स्वबल से है । अर्थात् वे अपने बल से ज्ञान के विषय होते हैं, जैसे -- पञ्च स्कन्ध, परमाणु आदि । प्रज्ञप्तिसत् धर्म वे हैं, जिनका अस्तित्व द्रव्यसत् धर्मों के ऊपर आश्रित है । वे अपने बल से नहीं, अपितु किन्हीं द्रव्यसत् धर्मों के बल से ज्ञान के विषय होते हैं । जैसे – समूह, सन्तति आदि । किसी वन में लगी हुई आग जब चलती हुई प्रतीत होती है तो उसका तात्पर्य मात्र इतना है कि आग लगातार भिन्न-भिन्न देश में उत्पन्न हो रही है । वस्तुतः आग तो अपने उत्पत्ति - देश में ही नष्ट हो जाती है । लेकिन उसके उत्पाद की सन्तति चलती रहती है और उसी में चलनक्रिया प्रज्ञप्त होती है । सन्तति का वस्तुतः क्षणिक अग्नि से भिन्न अस्तित्व नहीं होता, फिर भी उसकी व्यावहारिक सत्ता है । इसी तरह एक-एक अवयवों से भिन्न समूह का भी अस्तित्व नहीं होता, फिर भी उसमें एकत्व आदि का व्यवहार होता है । ठीक यही स्थिति पुद्गल की भी है । स्कन्धों की द्रव्यसत्ता है । उन द्रव्यसत् धर्मों के समूह एवं सन्तति में पुद्गल प्रज्ञप्त होता है । उसकी प्राज्ञप्तिक सत्ता है । प्राज्ञप्तिक अस्तित्व का यह अर्थ नहीं है कि वह नितान्त असत् है । इसका मात्र इतना अर्थ है कि उसकी द्रव्यसत्ता नहीं है । वसुबन्धु ने युक्तिपूर्वक विचार-विमर्श के बाद अभिधर्मकोश के पुद्गलविनिश्चयपरिच्छेद में कहा है- " तस्मात् प्रज्ञप्तिसत् पुद्गलो राशिधारावत्" (पृ० १२०५) । । प्रज्ञप्तिसत् वस्तुओं की स्थिति कुछ ऐसी होती है कि उन्हें सहसा 'अस्ति' ( है ) भी नहीं कहा जा सकता और न 'नास्ति' ही कहा जा सकता है 'अस्ति ' कहने में उनके परमार्थतः या द्रव्यतः अस्ति समझने का खतरा रहता है । 'नास्ति' कहने पर उनके 'संवृतित: भी नहीं है - ऐसा समझने का खतरा होता है । इसीलिए आत्मा के अस्तित्व और नास्तित्व के बारे में प्रश्न करने पर भगवान् ने हमेशा 1 उसे अव्याकृत कहा है । अर्थात् अस्ति या नास्ति में इस प्रश्न का उत्तर नहीं दिया जा सकता और यही भगवान् की उपायकुशलता मानी गयी है । सौत्रान्तिक आचार्य कुमारलात ने कहा है कि जिस प्रकार व्याघ्री अपने बच्चे को दाँत में दबा कर एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाती है, उस समय वह दाँतों को न जोर से दबाती है और न धीरे से । यदि जोर से दबा देगी तो बच्चे को क्षत हो जाने का भय है, धीरे से दबाने पर बच्चे के गिर जाने का भय है । भगवान् बुद्ध की देशना बहुत कुछ इसी प्रकार की है। यदि वे कह दें कि 'आत्मा' है तो शाश्वतदृष्टि या शाश्वत अन्त में पतन का भय है । यदि 'नहीं है' कह दें तो उच्छेद- दृष्टि में पतन का भय है तथा सारे कुशल या अकुशल कर्म जो किये गये हैं, उनके निष्फल हो जाने का भय है । इसीलिए उन्होंने इस प्रश्न को अव्याकृत कहा है, जैसे परिसंवाद - २ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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