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________________ बौद्धदर्शन की दृष्टि से व्यक्ति एवं समाज ____रामशङ्कर त्रिपाठी यह परिसंवाद-गोष्ठी बौद्धदर्शन के अनुसार 'व्यक्ति, समाज, उनका सम्बन्ध और विकास' विषय पर आयोजित है। यह सर्वविदित है कि पश्चिम के दार्शनिकों, समाज-वैज्ञानिकों एवं राजनीतिशास्त्रियों ने व्यक्ति, समाज और उनके सम्बन्ध को प्रमुख विषय बनाकर प्रभूत चिन्तन किया है। चिन्तन के क्षेत्र में भारतीय मनीषियों का भी अग्रणी स्थान रहा है। यद्यपि इनके चिन्तन का प्रमुख क्षेत्र आध्यात्मिक रहा है, फिर भी उन्होंने समसामयिक युग में व्यक्ति, समाज और राज्य को अपने विशिष्ट जीवनदर्शन से प्रभावित किया है। भारतीय दर्शनों में विशेष कर बौद्धदर्शन ने अपने प्रारम्भिक काल से ही न केवल भारत के अपितु विश्व के अधिकांश जनजीवन को प्रभावित किया है। ऐसे महत्वपूर्ण दर्शन के आलोक में व्यक्ति, समाज एवं उनसे सम्बद्ध प्रश्नों पर विचार करना उचित ही नहीं, उपयोगी भी है। बौद्धदर्शन में व्यष्टि और समष्टि को अवधारणा यह विदित है कि बौद्धदर्शन अनात्मवादी है। उसके अनुसार नाम-रूपात्मक व्यक्ति में किसी अपरिवर्तनशील, शाश्वत आत्मा का अस्तित्व मानना मिथ्यादृष्टि है। वह दृष्टि मिथ्या इसलिए है क्योंकि व्यक्तित्व के उपादानों में युक्ति और अनुभव के आधार पर किसी नित्य तत्त्व का अस्तित्व उपलब्ध नहीं होता। इस तरह की आत्मा के न होने पर भी बौद्धदार्शनिक व्यक्ति के व्यावहारिक अस्तित्व का निषेध नहीं करते । व्यक्ति के लिए दार्शनिक शब्दावली में 'पुद्गल' शब्द प्रयुक्त है। बौद्ध दृष्टि से व्यक्ति का जितना अस्तित्व है, उतना ही, समाज का भी व्यावहारिक अस्तित्व है। तात्त्विक दृष्टि से दोनों के अस्तित्व में बिलकुल अन्तर नहीं है। दोनों ही संवृति-सत्य हैं। पारमार्थिक सत्ता दोनों की नहीं है। बौद्ध विभज्यवादी हैं । इसका तात्पर्य वे पदार्थों का विभिन्न दृष्टियों से विभाजन कर उनके वास्तविक स्वरूप का परिचय प्राप्त करते हैं। उनके अनुसार सत्य दो हैं, संवृति-सत्य एवं परमार्थसत्य । समस्त पदार्थों का संग्रह इन्हीं दो में हो जाता है। इन दोनों सत्यों में उच्चावचभाव नहीं है। ऐसा बिल्कुल नहीं है कि संवृतिसत्य कोई घटिया किस्म का सत्य है और परमार्थसत्य कोई ऊँचा या ठोस । इसका तात्पर्य मात्र इतना ही है कि चित्त की एक अवस्था में जो सत्य प्रतीत होता है, चित्त की दूसरी परिसंवाद-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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