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________________ सामाजिक समता सम्बन्धी संगोष्ठी का विवरण ३५५ चरण के लिए एकमात्र प्रमाण के रूप में वेद का विधान स्वीकार करना है जैसे प्रशासन में मन्त्रियों के अधीन बहुत से अधिकारी होते हैं, पर वे उनके भृत्य नहीं अपितु प्रशासन व्यवस्था के मान्य सिद्धान्तों के प्रतिपालक मात्र हैं। इस प्रकार समतावादी मूल्य वेदों में भी मिलते हैं । परम्परागत पाण्डित्य के चूड़ान्तनिदर्शन तथा सम्पूर्णानन्द संस्कृतविश्वविद्यालय में वेदान्त के आचार्य पद से अवकाश प्राप्त पण्डित श्री रघुनाथ शर्मा ने अपने निबन्ध के द्वारा भारतीयदर्शनों में समता के आरोह और अवरोह का विवेचन प्रस्तुत करते हुए कहा-समता का तात्पर्य मानव के सामान्य धर्मों के समान अनुष्ठान से होना चाहिए और जैसे सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, सद्व्यवहार, बाहरी एवं भीतरी शुचिता, किसा से द्वेष न रखना, अहंकार न करना, दान, सब प्राणियों पर अनुग्रहबुद्धि, बुद्धिमानों का पूजन, सरल व्यवहार, अचपलता, अतिथि सेवा, किसी को कष्ट देने वाले वाक्यों का प्रयोग न करना, धर्म-अर्थ काम के सेवन में सबको समान अवसर देना आदि सामान्य धर्म है । इनके अनुष्ठान में समानता की दृष्टि होनी चाहिए। दार्शनिक दृष्टि से समता जब प्राकृतिक गुणों में होती है तो सृष्टिलय होता है और विषमता जब प्रकृति में उत्पन्न होती है तब सृष्टि होती है। दर्शनों में व्यवहार तथा अपवर्ग का मार्ग बतलाया गया है इनके अनुष्ठान का स्वरूप भी स्पष्ट किया गया है न्यायशास्त्र व्यवहारमार्ग बतलाता है, पूर्वोत्तरमीमांसा व्यावहारिक, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक विचारों का विवेचन करता है। सभी अनर्थों के मूल कामक्रोधादि के नाश का मार्ग वेदान्त बताता है। इस प्रकार मानव-जीवन को सुखमय बनाने के लिए विविध शास्त्रों में मार्ग बताये गये हैं। कभी-कभी ज्ञानी को भी व्यावहारिक प्रपञ्चों को स्वीकार करना पड़ता है यद्यपि वह स्थूल व्यवहारों की अतथता को समझ चुका होता है । ज्ञानी यदि व्यवहार में शास्त्रोक्तविधियों का अनुपालन न करे तो शास्त्रों का उच्छेद हो जायेगा। इसीलिए ज्ञानी को सब में अद्रोह बुद्धि रखते हुए मन, वचन तथा कर्म से लोक में अनुग्रह एवं दान आदि का अधिष्ठान करना पड़ता है। उन्होंने कामन्दक, पुराणों तथा दर्शनों के आधार पर चारों वर्गों के कर्तव्यों के पालन से समत्वबुद्धि का स्वरूप स्पष्ट किया तथा माता-पिता आदि की सेवा में, परिवार के भरण-पोषण में विशेष कर्तव्यों का भी विवेचन किया। इस प्रकार अपनेअपने कर्तव्यों के पालन को सर्वोत्कृष्ट मानते हुए भूतहित की चिन्ता पर बल दिया। परिसंचार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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