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________________ ३४८ भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएँ करता है पर दार्शनिकों का कर्तव्य है कि वे मात्र आर्थिक उन्नति पर ध्यान न देकर मानव मूल्यों पर जोर दें, तथा सर्वाङ्ग दर्शन के द्वारा सुव्यवस्थित समाज की रचना में योगदान करें । संगोष्ठी के संप्रेरक तथा संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो० बदरीनाथ शुक्ल ने कहा - विषमता की भावना मनुष्य की सहज प्रवृत्ति है । प्रत्येक मनुष्य की यह स्वाभाविक आकांक्षा होती है कि वह अन्यों की अपेक्षा बल, विद्या, वित्त आदि में उत्कृष्ट हो । उसकी इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना न तो सम्भव है और न मानवता के हित में है । किन्तु मनुष्य में आज जो कृत्रिम विषमता व्याप्त है उसे सही ढंग से समझना है । यह कृत्रिम विषमता समाज और शासन की संगठनगत त्रुटि से होती है, जैसे समाज में धनार्जन के साधनों तथा अर्जित धन के वितरण में समानता न होने से समाज के प्रत्येक वर्ग को शिक्षा की सुविधाओं की प्राप्ति की भी समानता नहीं होती है, फलतः कुछ परिवार सम्पन्न तथा कुछ विपन्न हो जाते हैं । दूसरी विषमता स्वाभाविक विषमता है, यह पूर्व कर्मों के परिणाम स्वरूप प्राप्त होती है जैसे जन्म से प्राप्त रंग, रूप, बुद्धि आदि । कृत्रिम विषमताओं को दूर करने में दर्शनों का योगदान सम्भव हो सकता है । इस संगोष्ठी के आयोजन का यही तात्पर्य है कि हम प्राचीन दर्शनों के परिप्रेक्ष में किस प्रकार का नया दर्शन विकसित करें जो मानवमात्र में समानता एवं सौहार्द की प्रतिष्ठा कर सके और जन्म के आधार पर सहज माने जाने वाली कृत्रिम विषमता एवं भेदभाव को दूर कर सके । प्रो० एस० रिन्पोछे प्राचार्य - तिब्बती उच्च शिक्षासंस्थान सारनाथ ने सामाजिक समता के सन्दर्भ में अपना मत व्यक्त करते हुए कहा - महायान दर्शन के अनुसार समता केवल मनुष्यों तक ही सीमित नहीं है, वरन् उसे सम्पूर्ण प्राणिजगत तक ले जाना है । प्राणियों के साथ समानता की भावना अज्ञान के नाश होने पर होती है। मानव के अधिकारों के छिन जाने पर विविध प्रकार के आन्दोलन खड़े कर दिये जाते हैं, पर मनुष्य की स्वतन्त्रता की अभिव्यक्ति के विना समता का प्रश्न नहीं उठता। अविद्या ही असमानता का कारण है । इसके निराकरण से हमारी सारी समस्यायें सुलझ सकती हैं, शास्त्रों में इसके निराकरण का मार्ग है । अतएव वर्तमान युग में समता की स्थापना के लिए प्राचीन शास्त्रों की गवेषणा जरूरी है । प्रसिद्ध राजनीतिवेत्ता प्रो० मुकुटविहारीलाल ने पाश्चात्य समाजवाद के प्रति भारत में व्याप्त भ्रम का निराकरण करते हुए कहा कि समाजवाद स्वतन्त्रता को परिसंवाद - २ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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