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________________ मानव-समता इस प्रकार हम देखते हैं कि यद्यपि स्वतन्त्रता का गुण उस प्रकार सीधे पकड़ में नहीं आता, जिस तरह भ्रातृभाव और समता को हम पकड़ लेते हैं, किन्तु वह इन दोनों ही प्रवृत्ति में अनूस्थत है और इनसे भी अधिक आन्तरिक, मौलिक और प्राथमिक है। यद्यपि हम अपने अन्वेषण में प्रत्यक्ष से अप्रत्यक्ष की ओर जाते हुए भ्रातृभाव से आरम्भ करते हैं और तब समता पर पहुँचते हैं और अन्त में स्वतन्त्रता पर, किन्तु कारण से कार्य की ओर आते हुए स्वतन्त्रता, समता और भ्रातृभाव का क्रम ही युक्तिसंगत और स्वाभाविक सिद्ध होता है। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि मनुष्य ने स्वतन्त्ररूप से बुद्धिपूर्वक आपस में समता के आधार पर भ्रातभाव मूलक सहयोग की स्थापना की, और समाज की प्रतिष्ठा की जिसके द्वारा उसने मानवेतर सभी जीवों पर अपनी विजय स्थापित की। ___ अब संक्षेप में यह भी देख लेना चाहिए कि सामाजिक व्यवहार में इन आदर्शों की ऐतिहासिक स्थिति क्या रही है । पाश्चात्य जगत में समाज के विकास एवं आदर्शों की दृष्टि से सामाजिक न्याय के तीन प्रमुख सिद्धान्त प्रचलित हुए थे १-सामाजिक अनुबन्ध का सिद्धान्त । २-उपयोगितावादी बहुजनसुखाय सिद्धान्त । ३–व्यक्ति के सम्मान का सिद्धान्त। सामाजिक अनुबन्ध का सिद्धान्त समाज को व्यक्तियों के बद्धिपूर्वक निर्धारित दीर्घकालीन स्वार्थों का सामूहिक परिणाम मानता है। पूँजीवादियों का आधारभूत सिद्धान्त यही है । इसमें स्वतन्त्रता पर अधिक जोर दिया जाता है समता पर उतना नहीं। इसके अनुसार उत्पादक लोग अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा करते हुए जिस राजनीतिक तथा आर्थिक नीति का निर्धारण करेंगे और सामाजिक उत्पादन का जिस प्रकार वितरण करेंगे, वही सारे समाज के लिए हितकर होगा। क्योंकि इससे उत्पादन को प्रोत्साहन मिलेगा और सामाजिक उत्पादन अत्यधिक होगा। उत्पादन की प्रक्रिया में व्यक्तियों की विशिष्ट योग्यतायें, उनके चारित्रिक गुण, भाग्य या संयोग जिससे व्यक्ति उपयुक्त समय और स्थान पर उपयुक्त कार्य करता है, इत्यादि क्रियायें सम्मिलित होती हैं जिसका फल उत्पादक को खुले बाजार के द्वारा उचित आय के रूप में प्राप्त होता है। खुले बाजार पर आधारित आय के वितरण की पद्धति आर्थिक प्रोत्साहन प्रस्तुत करती है और इस प्रकार आर्थिक विकास को प्रोत्साहित करती है। समाज में अधिक उत्पादन से अन्ततोगत्वा समाज के प्रत्येक व्यक्ति का लाभ होता है। जिसके फलस्वरूप प्रत्येक व्यक्ति की स्थिति उन्नत होती है। यह दूसरी बात है कि प्रत्येक व्यक्ति की स्थिति समान रूप से उन्नत न हो। इस प्रकार का आर्थिक विकास परिसंवाद-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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