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________________ मानव-समता प्रो० राजाराम शास्त्री फ्रांस की राज्यक्रांति के नारे थे स्वतन्त्रता, समता और भ्रातृभाव । इन नारों के पीछे प्रचुर मात्रा में दार्शनिक ऊहापोह हुआ था। प्रश्न यह उठता है कि क्या यह तीनों मानव की जन्मजात प्रवृत्तियाँ हैं ? इनमें से एक समता को ही लीजिये, क्या सब मनुष्य समान पैदा हुए हैं ? मनुष्य की व्यक्तिगत विशेषताओं को देखते हुए तो ऐसा लगता है कि कोई भी एक मनुष्य दूसरे मनुष्य के समान नहीं है बल्कि सर्वथा भिन्न है । फिर भी मानवप्रवृत्ति की अन्य जीवों से जो विशेषता है उसकी दृष्टि से सभी मनुष्यों में कुछ मूलभूत समानताएं दिखाई देती हैं । अन्य जीवों की अपेक्षा मनुष्य की शारीरिक आकृति की जो विशेषता है, वह सभी मनुष्यों में एक सी है । उसी प्रकार उसमें कुछ स्वभावगत विशेषताएँ भी हैं जो सभी मनुष्यों में समान रूप से पायी जाती हैं । इन्हीं विशेषताओं में एक भ्रातृभाव भी है जिसके बिना मनुष्य मनुष्य नहीं होता । विकासवाद की दृष्टि से भी मनुष्य ने अपनी सामाजिकता के द्वारा ही अपने को अन्य जीवों के बीच ऊपर उठाया है । इसी प्रकार की उसकी दुसरी विशेषता उसकी बौद्धिकता है जिसके द्वारा उसने अपने शारीरिक उपकरणों के अतिरिक्त बाह्य उपकरणों एवं शस्त्रास्त्रों का आविष्कार किया और आत्मरक्षा के इन्हीं साधनों तथा अपने सामाजिक संगठनों के द्वारा उसने सिंह, व्याघ्र आदि ऐसे जन्तुओं पर विजय पाई जो शारीरिक बल में उससे अधिक शक्तिशाली थे । इस तरह जीवन संघर्ष में उसके सहायक होने के कारण बौद्धिकता और सामाजिकता ये दोनों ही गुण वंशपरम्परा से विकसित होते चले गये और मानव स्वभाव के अंग बन गये । यही कारण है कि मानव शिशु में आरम्भ से ही ज्ञान और स्नेह की चाह दिखाई देने लगती है । अकेलापन उसे अच्छा नहीं लगता 'एकाकी न रमते' । मनुष्य स्नेह चाहता है और करता भी है । यह दोनों एक ही प्रवृत्ति के दो पक्ष हैं और इसी से मनुष्य में नैतिक चेतना का उदय होता है जिसके द्वारा वह अन्य मानवों के प्रति अपने कर्तव्याकर्तव्य का निर्णय करता है । इस प्रकार मनुष्य की नैतिकता का मूल्य उसकी सामाजिकता है। में बौद्धिकता और सामाजिकता के अतिरिक्त एक तीसरी प्रवृत्ति मनुष्य सम्मान की पाई जाती है । वह दूसरों से अपने अस्तित्व और व्यक्तित्व की स्वीकृति परिसंवाद - २ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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