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________________ २९८ भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएँ समय के दीर्घ अन्तराल में समाज संरचना के वैदिक आधार वर्ण-व्यवस्था का रूप इतना विकृत हो चुका था कि आदमी-आदमी के बीच एक लम्बी और गहरी खाई बन गयी थी। पशुयज्ञों ने समाज के आर्थिक ढाँचे को जर्जरित कर दिया था। और ईश्वर की परतन्त्रता के कारण व्यक्ति और उसके श्रम का मूल्य नहीं रह गया था। महावीर ने देखा एक ओर समृद्ध वैशाली, दूसरी ओर अन्त्यज और चाण्डालों की बस्तियाँ । एक ओर यज्ञों में पशुधन और खाद्यान्न का विसर्जन, दूसरी ओर दानेदाने के लिए कलपते हुए लोग। एक ओर रत्न कंबल, दूसरी ओर झंझावातों में ठिठुरता नंगा शरीर । उपभोग्य सामग्रियों की तरह खुले बाजार में बिकते तथाकथित दासी-दास, स्त्री-पुरुष । चारों ओर विषमता ही विषमता। - महावीर ने बारह वर्षों तक इन समस्याओं का अध्ययन किया । इन्हें मिटाने के लिए अपने आप पर अनेक प्रयोग किये। और ज्ञब उन्हें लगा कि उनके प्रयोग परे हो गये हैं तब उन्होंने कहा-आओ, एक ऐसे समाज की रचना करें, जिसमें कोई किसी के प्राण न ले। सभी जीना चाहते हैं । मरना कोई नहीं चाहता। ___ “सब यह समझें कि जैसे दुःख मुझे अच्छे नहीं लगते, वैसे दूसरे को भी अच्छे नहीं लगते।" उन्होंने कहा-जो अनृत है, अकल्याणकारी है, वह मिथ्या है, झूठ है । असत्य की भी सीमा होती है। परलोक में सुखों का लोभ दिखाकर वर्तमान के साधनों का स्वाहा करना ठीक नहीं है। महावीर ने कहा-बिना अनुमति किसी की चीज लेना चोरी है । अदत्तग्रहण नहीं होना चाहिए। उन्होंने कहा कि यह गलत है कि एक जगह साधन सामग्री के अंबार लग जाएँ, और दूसरी जगह खाने के लाले पड़े रहें । संग्रह का परित्याग होना चाहिए, व्यक्ति और वस्तु दोनों के संग्रह का । और आगे चलकर महावीर ने कहासब एक जैसे हैं, कोई छोटा-बड़ा नहीं हैं। सबके व्यक्तित्व का आदर होना चाहिए। सबकी बात का आदर होना चाहिए। ........ यह था महावीर का दर्शन-जैनदर्शन । जिसे लोगों ने बाद में अणुव्रत और महावतों के रूप में जाना, अनेकान्त और स्याद्वाद के रूप में व्याख्यायित किया। जैन मनीषियों ने कहा-मनुष्य स्वतःप्रमाण होता है। श्रुति और ग्रन्थ - उसकी प्रामाणिकता से प्रमाण हो सकते हैं, स्वतः प्रमाण नहीं । प्रश्न अपने भीतर की परिसंवाद-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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