SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 313
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सामाजिक समता के सन्दर्भ में भारतीय दर्शन श्री राधेश्यामधर द्विवेदी पश्चिम में दार्शनिक तत्त्ववाद समाप्त हो चुका है पूर्व में अध्यात्म केवल अन्धविश्वास मात्र रह गया है। पर मनुष्य दोनों जगह वर्तमान है। एक जगह सब व्यवस्थाओं को तोड़कर समाज व्यवस्था के नये-नये आयाम ढूंढे जा रहे हैं तो एक तरफ समाज की कलुषित प्रवृत्तियों के कारण व्यक्ति वैराग्य लेकर रहस्यवाद में आनन्द ले रहा है । पहला अपनी सारी समृद्धि के बावजूद उदास है, त्रस्त है, परेशान है तो दूसरा अपनी सारी खामियों या गरीबी के बावजूद शान्त है, प्रसन्न है, प्रेक्षक की भाँति देख रहा है, दुनिया के नाटक को।। पश्चिम सदा से गतिमान रहा है, उसका जीवन गतिशील था, उसने साहस करके सब जगह के नयेपन का स्वाद लिया और अनुभव ग्रहण किया। उसमें उसने कुछ दिया और कुछ लिया भी। पूर्व सदा से स्थिर रहा है, वह बदलाव से भय खाता है, उसमें गतिशीलता जब आती है तो वह काँपता है कहीं उसकी धरती (विरासत) खिसक तो नहीं जायेगी। इस भय से आतंकित पूर्व अपनी स्थिरता को नये-नये आयामों में बनाये रखना चाहता है । पर क्या भविष्य में यह बचा रहेगा ? अब इसमें सन्देह पैदा हो गया है। सन्देह नये ज्ञान को जन्म देता है। भारतीय द्विजमनीषा इस समय सन्देहाक्रान्त है वह सोच रही है कि किस तरह से समय के अनुकूल शास्त्रों की व्याख्या की जाय और बीसवीं शती में पहली शती के विचारों को तर्कसंगत सिद्ध किया जाय । इसके लिए विश्वविद्यालयों के बुद्धिजीवी रात-दिन एक करके काम कर हैं और पहली शती को २० वीं शती के रूप में प्रस्थापित करते जा रहे है। इसी प्रक्रिया में इस संगोष्टी की उपयोगिता आ सकती है। समता को अगर सामञ्जस्य के रूप में लिया जाय तो यह काम कुछ साफसाफ सामने आ सकता है। धड़ी की टिक-टिक की आवाज घड़ी के समग्र यन्त्रों के सामञ्जस्य पर निर्भर करती है, एक यन्त्र के खराब होने पर घड़ी बन्द हो जायेगी। उसी प्रकार समाज की समता सामञ्जस्य पर ही आधारित होगी, उसके किसी एक अंग पर कोई पक्षाघात होगा तो पूरा समाज चकनाचूर हो जायेगा। आज भारतीय परिसंवाद-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy