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________________ २८२ भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएँ अप्रामाणिकता आदि के आक्षेपों को सुना, उनका उत्तर दिया, और संघर्ष भी किया। यामुनाचार्य आदि वैष्णव आचार्यों को 'आगमप्रामाण्य' जैसे गन्थों की रचना भी प्रायः इसी प्रकार के आरोपों का उत्तर देने के लिए करनी पड़ी। किन्तु इतना सब कुछ करते हुए भी सामाजिक विषमता को दूर करने की दिशा में यह परम्परा सफल नहीं हो पायी। इसका कारण स्पष्ट है। जब तक मन्वादि स्मृतियों का स्थान ले सकने में समर्थ किसी स्वतन्त्र धर्मशास्त्र की रचना नहीं जाती तब तक सामाजिक विषमता को दूर करने का कोई भी प्रयास सफल नहीं हो सकता। और सम्भवतः मन्वादि स्मतियों का विकल्प प्रस्तुत करने का प्रयास वैष्णव तन्त्र नहीं कर सके । वैष्णव परम्परा में आगे चल कर मन्वादि स्मृतियों के विरोध की बात तो दूर उनका समर्थन हो प्रामाणिक माना गया। स्वयं अपनी प्रामाणिकता भी मन्वादि स्मृतियों से अविरोध की स्थिति में ही मानी गयी। रामानुज इसी मन्वादि स्मृतियों से विरोध होने के कारण कपिलस्मृति को अप्रमाण मानते हैं। रामानुज के ही शब्दों में--- 'मन्वादीनां बहूनां स्वयोगमहिमसाक्षात्कृतपरावरतत्त्वयाथात्म्यानां निखिलजगभेषजभूतस्ववाक्यतया 'यद्वै किञ्च मनुरवदत्तद् भेषजम्' इति श्रुतिप्रसिद्धानां कपिलदृष्टप्रकारेण तच्वानुपलब्धेश्रुतिविरुद्धा कपिलोपलब्धि न्तिमूलेति न तया यथोक्तो वेदान्तार्थश्चालयितुं शक्य इति सिद्धम् ।२ यही कारण है कि सामाजिक विषमता के विरुद्ध होते हुए भी वैष्णव तन्त्र अपने लक्ष्य में सफल नहीं हो सके। १. ब्रह्मसूत्र, २।१।१ (अधिकरण); २. श्रीभाष्य २।१।२। परिसंवाद-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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